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________________ आनन्दघन के रहस्यवाद के दार्शनिक आधार २२९ स्थिति-बन्ध बन्ध का दूसरा भेद है-स्थिति-बन्ध । प्रत्येक का सत्ता में बना रहना स्थिति-बन्ध कहलाता है। दूसरे शब्दों में, विभिन्न कर्मों की काल मर्यादा को स्थिति-वन्ध कहा गया है।' अनभाग-बन्ध कर्मों के रसों में तीव्रता-मन्दता होती है। अतः कर्मों के अध्यवसाय के आधार पर रस (अनुभाग) नियत होता है। इसके द्वारा कर्म-फल की तीव्रता-मन्दता का निर्धारण होता है। प्रदेश-बन्ध कर्म-वर्गणाओं के समूह को प्रदेश-बन्ध कहते हैं। इसमें कर्मों की वर्गणा (संख्या) नियत होती है कि अमुक कर्म कितनी कर्म-वर्गणा का बना हुआ है। कर्म की अवस्थाएँ जैनदर्शन में ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय आदि प्रत्येक कर्म-प्रकृति की प्रमुख रूप से चार अवस्थाएँ मानी गई हैं, जिनका संकेत आनन्दघन ने उपर्युक्त पंक्तियों में किया है। वे हैं-बन्ध, उदय, उदोरणा और सत्ता। जैनदर्शन में ही नहीं, अन्य दर्शनों में भी कर्म की इन अवस्थाओं का उल्लेख मिलता है । अन्यदर्शनों में बन्ध (बध्यमान) को क्रियमाण कर्म, उदय को प्रारब्ध कर्म तथा सत्ता की अवस्था को संचित कर्म कहा गया है। क्रियमाण, प्रारब्ध और संचितकर्म की इन तीन अवस्थाओं का वर्णन तो अन्यत्र उपलब्ध होता है। किंतु उदीरणा को चच जैनदर्शन के अतिरिक्त अन्यत्र कहीं भी नहीं पाई जाती है। बन्ध कर्म-परमाणु के साथ आत्म-प्रदेशों के सम्बद्ध होने की प्रक्रिया बन्ध कहलाती है अर्थात् कर्म और आत्मा का दूध-पानी की तरह (नीरक्षीरवत्) अथवा लौहपिणश्चत् परस्पर एकरूप हो जाना ही बन्ध की अवस्था है। १. स्थितिः कालावधारणम् । -उद्धृत प्रथम कर्मग्रन्थ, पृ० ५। २. अनुभागो रसो ज्ञेयः।-वही । ३. प्रदेशा दल सञ्चयः।-वही ।
SR No.010674
Book TitleAnandghan ka Rahasyavaad
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages359
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size28 MB
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