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________________ आनन्दघन के रहस्यवाद के दार्शनिक आधार २१७ यद्यपि प्राचीन जैनागमों में स्पष्टतः जाग्रत्, स्वप्न, सुषुप्ति एवं तुरीय इन चार अवस्थाओं का निर्देश नहीं मिलता, फिर भी, आचारांग सूत्र में जाग्रत् एवं सुषुप्त (प्रसुप्त ) इन दो अवस्थाओं की झलक अवश्य पाई जाती है । उसमें कहा गया है कि जहाँ अज्ञानी जन सुप्त हैं वहां ज्ञानी जन सदैव जाग्रत हैं ।' यहाँ प्रमत्त आत्मा को सुषुप्त और अप्रमत्त आत्मा को जाग्रत् कहा गया है । आगे चलकर इसका विकसित रूप परवर्ती साहित्य में देखने को मिलता है । आचारांग की भाँति आचार्य कुन्दकुन्द ने मोक्षप्राभृत में आचार्य पूज्यपाद ने समाधि-शतक में और योगीन्दु मुनि ने परमात्म- प्रकाश में सुषुप्त और जाग्रत् इन दो अवस्थाओं की चर्चा की है । गोताकार ने भी इस तथ्य को अभिव्यक्त किया है। हमारी जानकारी में जैन-धर्म में आत्मा की चार अवस्थाओं का चित्रण सन्मति के टीकाकार मल्लवादी ने 'द्वादशारनयचक्र' में सर्वप्रथम किया है । उसमें चेतन (आत्मा) की चार अवस्थाएँ बतलायी गयी हैं— अहं भावानहं भावौ त्यक्त्वा सदसती तथा । यदसक्तं समं स्वच्छं स्थितं तत्तु र्यमुच्यते । ( ६ / १११२४/२३) — योगवासिष्ठ, उद्धृत, योगवासिष्ठ और उसके सिद्धान्त, पृ० २७५-२७८ । १. सुत्ता अमुणी सया, मुणिणो सया जागरन्ति । २. जो सुत्तो ववहारे सो जोई जग्गए सकज्जम्भि । जो जग्गदि ववहारे सो सुत्तो अप्पणो कज्जे || - मोक्ष-प्राभृत गाथा, ३१ । ३. व्यवहारे सुषुप्तो यः स जागर्त्यात्मगोचरे । जागर्ति व्यवहारेऽस्मिन् सुतवात्मगोचरे ॥ - समाधितंत्र, श्लो० ७८ । ४. - आचारांग, ३।१।१ ५. जा णिसि सयल हं देहि यहं जोग्गिउ तहिं जग्गइ । जहिं पुणु जग्गइ सयलु जगु सा णिसि मणिवि सुवेइ ॥ - परमात्म प्रकाश, अ० २, गाथा ४६ । या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी । यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः ॥ , - गीता, २।६९
SR No.010674
Book TitleAnandghan ka Rahasyavaad
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages359
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size28 MB
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