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________________ आनन्दघन के रहस्यवाद के दार्शनिक आधार २११ केवल चैतन्य-स्वरूप उस शुद्ध निरंजन परमात्मा का ध्यान कर जिससे तू भी परमात्मा बन जाय ।" उपर्युक्त तथ्यों के प्रकाश में, संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि आनन्दघन ने बहिरात्मवर्ती मोह मूढ़ मानव की दशा का मार्मिक चित्र खींचा है तथा बहिरात्मवर्ती जीव को अन्तरात्म-दशा की ओर अभिमुख करने के लिए पुद्गल की अनित्यता, शरीर की नश्वरता, क्षणभंगुरता आदि का सम्यक् बोध कराया है । यह सत्य है कि जब साधक को शरीर की अनित्यता की प्रतीति हो जाती है, तब अन्तर्दृष्टि जागृत हो जाती है अर्थात् जीव बहिरात्मभाव से हटकर अन्तर्मुखी बन जाता है। जैसे ही भेद - विज्ञान या आत्म-अनात्म विवेक जागृत होता है, बहिरात्म अवस्था समाप्त हो जाती है । अब प्रश्न उठता है कि अन्तरात्मा का लक्षण क्या है ? उसे कैसे पहचाना जा सकता है ? अन्तरात्मा का लक्षण आनन्दघन ने इस प्रकार प्रकार दिया है : कायादिको साखीधर कह्यो, अन्तर आतम भूप सुज्ञानी । १. २. क्या सोवै उठि जाग वाउरे । अंजलि जल ज्यू आउ घटतु है, देत पहरिया घरी घाउ रे । इंद्र चंद्र नागिंद मुनिंद चले, कौन राजा पतिसाह राउ रे । भ्रमत-भ्रमत भव जलवि पाई तैं, भगवंत भगति सुभाव नाउ रे । कहा विलंब करें अब बोरे, तरि भव-जल-निवि पार पाउ रे । आनन्दघन चेतनमय मूरति, सुद्ध निरंजन देव ध्याउ रे ॥ - आनन्दघन ग्रन्थावली, पद १ । आनन्दघन ग्रन्थावली, सुमति जिन स्तवन । तुलनीय - (क) अंतरप्पा हु अप्प संकप्पो - मोक्ष प्राभृत, ५। (ख) : गाथा १९४-९५-९६-९७-९८ । (ग) चित्त दोषात्म विभ्रान्तिः आन्तरः । समाधितंत्र ५ । (घ) योगसार, गाथा ८ एवं परमात्म प्रकाश । (ङ) ज्ञानार्णव, श्लो० ७ । (च) कायादेः समधिष्ठायको भवत्यन्तरात्मातु । - योगशास्त्र, एकादश प्रकाश, ७ । अध्यात्म रहस्य, गाथा ५ । ब्रह्मविलास, परमात्म छत्तीसी, पृ० २२७ ॥ (झ) सम्यग्दर्शनादि परिणतस्त्वन्तरात्मा । - अध्यात्ममतपरीक्षा, १२५
SR No.010674
Book TitleAnandghan ka Rahasyavaad
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages359
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size28 MB
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