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________________ २०६ आनन्दघन का रहस्यवाद मुनि,' आचार्य शुभचन्द्र, आचार्य हेमचन्द्र, पण्डित आशाधर, भैया भगवतीदास, और उपाध्याय यशोविजय प्रभृति ने भी बहिरात्मा का यही लक्षण प्रतिपादित किया है। ___ बहिरात्म-अवस्था में चिन्तन की धारा का प्रथम सूत्र है-'मैं शरीर हूँ,' जब कि अध्यात्म-साधना का समूचा विकास इस विचारसरणी के आधार पर हुआ है कि 'शरीर और आत्मा पृथक् है ।" बहिरात्म व्यक्ति शरीर और आत्मा को एक मानता है। फलतः इससे 'मेरे' पन की बुद्धि उत्पन्न हो जाती है। यथा, मेरा शरीर, मेरी पत्नी, मेरा पुत्र, मेरा परिवार, मेरा धन आदि-आदि। कहने का तात्पर्य यह कि ऐसा व्यक्ति समूचे पदार्थ-जगत् को अपने अधिकार में समेट लेना चाहता है। उसकी तृष्णा या ममत्व-त्रुद्धि सुरसा के मुँह के समान बढ़ती ही जाती है। इस तरह, जहाँ भी 'ममत्व' बुद्धि होती है, वहाँ बहिरात्मदशा होती है। यह भी सत्य है कि जहाँ ममत्व होगा वहाँ अहंकार निश्चित् होगा और जहाँ ये दोनों १. देहादिउ जे परिकहिया ते अप्पाणु मुणेइ । सो बहिरप्पा जिण भणिउ पुणु संसारू भमेइ ॥ -योगसार १०, एवं परमात्मप्रकाश, गाथा १३ । २. आत्म बुद्धिः शरीरादौ यस्य स्यादात्मविभ्रमात् । बहिरात्मा स विज्ञेयो मोह निद्रास्त चेतनः ॥ -ज्ञानार्णव, ६। ३. आत्मधिया समुपात्तः कायादिः कीर्त्यतेऽत्र बहिरात्मा । -योगशास्त्र, एकादश प्रकाश, ७ । ४. स स्वात्मेत्युच्यते शश्वद् भाति बत्पंकजोदरे । योऽहमित्यंजसा शब्दात्पशूनां स्वविदा विदाम् ।। -अध्यात्म-रहस्य, ४। ५. बहिरातम ताको कहै, लखै न ब्रह्म स्वरूप । मग्न रहै पर द्रव्य में, मिथ्यावन्त अनूप ॥ -ब्रह्म विलास, परमात्म छत्तीसी । ६. अन्ये तु मिथ्यादर्शनादि भावपरिणतो बाह्यात्मा । -अध्यात्ममत परीक्षा, १२५ । ७. अन्नो जीवो अन्नं सरीरं। -सूत्रकृतांग, २।१।९।
SR No.010674
Book TitleAnandghan ka Rahasyavaad
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages359
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size28 MB
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