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________________ आनन्दघन के रहस्यवाद के दार्शनिक आधार २०३ आनन्दघन के समकालीन विचारकों में भैया भगवतीदास ने ब्रह्म-विलास में,' धानतराय ने 'धर्म-विलास'२ में और उपाध्याय यशोविजय ने 'योगावतारद्वात्रिंशिका' ३ में आत्मा की उक्त तीन अवस्थाओं की विवेचना की है। उपाध्याय यशोविजय की विशेषता यह है कि उन्होंने इन तीनों अवस्थाओं को चौदह गुणस्थानों की अवधारणा के साथ घटाया है। जैनेतर परम्परा में प्रात्मा की अवस्थाओं का चित्रण औपनिषदिक-चिन्तन में भी आत्मा की विभिन्न अवस्थाओं की अवधारणा पाई जाती है। यह बात दूसरी है कि आत्मा की विविध अवस्थाओं की अवधारणा के सम्बन्ध में उनकी जैन-परम्परा से किंचित् भिन्नता है, किन्तु इतना निश्चित् है कि आत्मा के विविध भेद उनमें भी मान्य हैं। तैत्तिरीय उपनिषद् में आत्मा की पांच अवस्थाएँ बतलायी गयी हैं : १-अन्नन्य, २-प्राणमय, ३-मनोमय, ४-विज्ञानमय और ५-आनन्दमय । कठोपनिषद् में त्रिविध आत्मा का उल्लेख मिलता है : ज्ञानात्मा, महदात्मा और शान्तात्मा। इसी तरह छान्दोग्य उपनिषद् को दृष्टिपथ में रखकर डायसन ने आत्मा के तीन भेदों की चर्चा की है : शरीरात्मा, १. एक जु चेतन द्रव्य है, तिन में तीन प्रकार। बहिरातम अन्तर तथा परमातम पद सार ।। ब्रह्मविलास, परमात्म छत्तीसी, २ । २. तीन भेद व्यवहार सौं, सरब जीव सब ठाम । बहिरन्तर परमातमा, निहचै चेतनराम ॥ -धर्मविलास, अध्यात्म पंचासिका, ४१ । ३. बाह्यात्मा चान्तरात्मा च परमात्मेति च त्रयः । कायाधिष्ठायक ध्येयाः प्रसिद्धा योग वाङ्मये ।। -योगावतार द्वात्रिंशिका, १७ । ४. एमापनमकन्न। एतं प्राणमयमात्मानमुपसंक्रम्य एतं -म नाक । एतं विज्ञानमयात्मानमुपसंक्रम्य । एतमानन्दमयमात्मानमुपसंक्रम्य। -तैत्तिरीय उपनिषद्, भृगुवल्ली, ३।१० ५. यच्छेद्वाङ्मनसी प्रज्ञस्तद्यच्छेज्ज्ञान आत्मनि । ज्ञानमात्मनि महति नियच्छेत्तद्यच्छेच्छान्त आत्मनि ।। -कठोपनिषद्, ३३१३
SR No.010674
Book TitleAnandghan ka Rahasyavaad
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages359
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size28 MB
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