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________________ आनन्दघन के रहस्यवाद के दार्शनिक आधार परिभाषित किया है ।' सन्त आनन्दघन ने भी आत्मा की उक्त अवस्थाओं का विश्लेषण किया है किन्तु वे एक रहस्यदर्शी सन्त हैं, अतः अपनी बात को रहस्य एवं रूपक में ही प्रस्तुत करते हैं । उनके अनुसार आत्मा की स्वभाव - दशा समता है और विभाव- दशा ममता । उन्होंने समता को आत्मा (चेतन) की सहधर्मिणी बड़ी पत्नी के रूप में और ममता को आत्मा की विधर्मिणी छोटी पत्नी के रूप में कल्पित किया है । इसके साथ समता को आत्मा का निजघर और ममता को आत्मा का परघर कहाहै । इस प्रकार, उन्होंने समता और ममता रूप दोनों सौत-पत्नियों के संघर्ष का रूपक अलंकार द्वारा अतीव सुन्दर और सजीव चित्रण किया है । १९५ आत्मा की स्वभाव एवं विभाव- दशा का वर्णन करते हुए आनन्दघन ने अरजिन स्तवन के प्रारम्भ में ही कहा है कि जहाँ शुद्धात्म स्वरूप की अनवरत अनुभूति होती हो, वही आत्मा की स्व-स्वभाव - दशा है, किन्तु कभी-कभी आत्मा पर-पदार्थों के आकर्षण के कारण अपने शुद्धात्म स्वरूप से च्युत होकर पौद्गलिक पर भावों में भटकने लगता है तब वह आत्मा की विभाव- दशा या पर समय कहलाता है । समयसार टीका में आत्म-द्रव्य की पर्याय दो रूपों में विभक्त की गई है – स्वभाव और विभाव । २ वस्तुतः 'पर्याय' शब्द जैनदर्शन का पारि - भाषिक शब्द है । यह अवस्था या दशा का सूचक है । 'पर' (पुद्गल) के निमित्त से होनेवाली पर्याय (अवस्था) अर्थात् पराश्रित - दशा को विभावदशा कहा गया है । यही विभाव- दशा बन्धन की परिचायक है, जब कि स्वाश्रित या स्वभाव - दशा मुक्ति की द्योतक है । इस सम्बन्ध में डा० सागरमल जैन ने अपने शोध-प्रबन्ध में प्रकाश डाला है । वे कहते हैं"नैतिक जीवन का अर्थ विभाव पर्याय से स्वभाव - पर्याय में आना है" ३ १. श्रेयान् स्वधर्मो विगुणः, पर धर्मात्स्वनुष्ठिताद् । स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः ॥ - भगवद्गीता, अध्याय ३, श्लो० ३५ । २. समयसार टीका, २-३ । ३. बौद्ध एवं गीता के आचार-दर्शन के सन्दर्भ में जैन आचार - दर्शन का तुलनात्मक अध्ययन, पृ० २२२ ।
SR No.010674
Book TitleAnandghan ka Rahasyavaad
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages359
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size28 MB
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