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________________ १९२ आनन्दघन का रहस्यवाद पर जो आक्षेप या दोष घटित होते हैं, वे नित्यात्मवाद पर भी लागू हो सकते हैं। वास्तविकता यह है कि एकान्त रूप से चाहे नित्य आत्मवाद माना जाए या अनित्य आत्मवाद, दोनों ही सदोष हैं । ऐकान्तिक नित्य आत्मवाद और ऐकान्तिक अनित्य आत्मवाद दोनों धर्म साधना की दृष्टि से अनुपयुक्त हैं। यद्यपि आत्मवाद के सम्बन्ध में नित्य और अनित्यता के दोनों ही दृष्टिकोण सापेझरूप से अवश्य सत्य हैं, किन्तु वे ऐकान्तिक रूप से अर्थात् आत्मा को केवल नित्य या अनित्य मानने पर समीचीन प्रतीत नहीं होते। उपर्युक्त आधार पर यह निष्कर्ष निकलता है कि एकान्त नित्य और एकान्त अनित्य आत्मवाद के सिद्धान्त आत्मतत्त्व की समुचित व्याख्या प्रस्तुत नहीं करते। अतः जैनदर्शन ने अनैकान्तिक समन्वयवादी विचारों के आधार पर आत्मा को नित्यानित्य या परिणामी-नित्य सिद्ध किया है। आत्मवाद के विषय में जैनदर्शन का दष्टिकोण मध्यस्थ, समन्वयात्मक एवं अनैकान्तिक है। जहां एक ओर, बौद्धदर्शन आत्मा को केवल परिणामी (प्रतिक्षण परिवर्तनशील) मानता है, वहीं दूसरी ओर गीता, सांख्य, वेदान्त आदि उसे कूटस्थ नित्य घोषित करते हैं। किन्तु इन दोनों भिन्नभिन्न दृष्टिकोणों में समन्वय स्थापित कर जैन दार्शनिकों ने आत्मा को परिणामी नित्य (नित्यानित्य) प्रतिपादित किया है। इसी विचारसरणी का अनुसरण सन्त आनन्दघन ने भी किया है। जैनदर्शन के अनुसार आत्मा नित्य भी है और अनित्य भी। भगवती सूत्र में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि आत्मा नित्यानित्य है। भगवान् महावीर और गौतम के मध्य हुए संवाद में ऐकान्तिक नित्य आत्मवाद और अनित्य आत्मवाद सम्बन्धी समस्या का हल खोजा गया है। भगवती सूत्र में आत्मा के सम्बन्ध में ऐकान्तिक मान्यता का समाधान बड़े ही सुन्दर ढंग से किया गया है। भगवान् महावीर ने जीव (आत्मा) को द्रव्य की अपेक्षा से शाश्वत (नित्य) और भाव अर्थात् पर्याय की अपेक्षा से अशाश्वत् (अनित्य) कहा है।' १. जीवाणं भन्ते किं सासया असासया ? गोयमा जोवा सिय सासया सिय असासया । गोयमा, दव्वट्ठयाए सासया भावट्टयाए असासया । --भगवती, ७।२।२७३
SR No.010674
Book TitleAnandghan ka Rahasyavaad
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages359
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size28 MB
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