SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 171
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आनन्दघन के रहस्यवाद के दार्शनिक आधार १६७ आत्म-ज्ञान की यह जिज्ञासा जैन एवं वैदिक वाङ्मय में भी अभिव्यक्त हुई है। प्राचीनतम जैनागम आचारांग का प्रारम्भ ही आत्मजिज्ञासा से होता है जो कि दर्शनशास्त्र का मूल बीज माना गया है। उसमें कहा गया है-'मैं कौन हूँ, कहाँ से आया हूँ ? कहाँ जाऊँगा ? क्या मेरा पुनर्जन्म होगा ? मेरा स्वरूप क्या है ?' आदि।' इसी की प्रतिध्वनि वैदिक-परम्परा में भी देखी जा सकती है। यथा-'कोऽहं कीदृक् कुतः आयातः'२-अर्थात् 'मैं कौन हूँ और कहां से आया हूँ।' यही बात मुण्डकोपनिषद् एवं कठोपनिषद् में भी है। यहां सहज प्रश्न उठ सकता है कि आनन्दघन ने आत्मतत्त्व के सम्बन्ध में ही जिज्ञासा प्रकट क्यों की? इसके अनेक कारण हैं। जब तक साधक को आत्मतत्त्व का ज्ञान नहीं होगा, तब तक वह अपने साध्य को नहीं प्राप्त कर सकता। यह सत्य है कि परमतत्त्व रूप साध्य को पाने के लिए जब तक हृदय में आत्म-तत्त्व को जानने की छटपटाहट नहीं होगी, तब तक वह साध्य तक पहुंचने में असमर्थ रहेगा। आत्मतत्त्व की जिज्ञासा का कारण उन्होंने स्वयं बताया है : आतम तत्त जाण्या विण निरमल चित्त समाधि नवि लहियौर उनकी स्पष्ट मान्यता है कि आत्मतत्त्व को जाने बिना चित्त की निर्मल, १. पुरत्थिमातो वा दिसातो आगतो अहमंसि, दाहिणाओ वा दिसाओ आगतो अहमंसि, पञ्चत्थिमातोवा दिसातो आगतो अहमंसि, उत्तरातो वा दिसातो आगतो अहमंसि, उड्ढातो वा दिसातो आगतो अहमंसि, अधे दिसातो वा आगतो अहमंसि, अन्नतरीतोदिसातो वा अणुदिसातो वा आगतो अहमंसि, एवमेगेसि णो णातं भवति । अत्थि मे आया उववाइए, णत्थि मे आया उववाइए, के अहं आसी, के वा इओ चुए पेञ्चाभविस्यामि । -आचारांग, १११११ २. चर्पट पंजरिका, आचार्य शंकर । ३. कस्मिन्नु भगवो विज्ञाते सर्वमिदं विज्ञातं भवतीति । -मुण्डकोपनिषद्, १।१३ ४. येयं प्रेते विचिकित्सा मनुष्ये, अस्तीत्येके नायमस्तीति चैके। -कठोपनिषद् ११२० ५. आनन्दघन ग्रन्थावली
SR No.010674
Book TitleAnandghan ka Rahasyavaad
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages359
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size28 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy