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________________ १६४ आनन्दघन का रहस्यवाद प्रधानतः हृदय से होता है और तर्क या वाद-प्रतिवाद का सम्बन्ध बौद्धिकता से। इसलिए आत्मानुभूति के सम्बन्ध में बुद्धि द्वारा जो भी वादविवाद या तर्क-वितर्क किया जाता है, वह अनुभूत्यात्मक नहीं हो सकता। बुद्धि तर्क कर सकती है, वह किसी भी वस्तु-तत्त्व का विश्लेषण कर सकती है, किन्तु वह 'अनुभव' ('जान') नहीं कर सकती। यह उन वादों और मतों का विशाल भवन भी खड़ा कर देती है, जिनमें मन उसी प्रकार बँध जाता है जिस प्रकार 'बन्दर-पिंजरे में बँध जाता है।' बुद्धि से बौद्धिक समस्याओं का समाधान हो सकता है, किन्तु बुद्धि जितनी समस्याओं का समाधान नहीं करती, उतनी समस्याएँ उपस्थित कर देती है और इस प्रकार हृदय उद्विग्न हो उठता है, चित्त असमाधिस्थ हो जाता है। इन्हीं सब कारणों को दृष्टिगत रखते हुए आनन्दघन ने दार्शनिक विवादों से ऊपर आत्मानुभव की प्रधानता को सर्वोपरि स्थान दिया है। वास्तव में, आनन्दघन जिस आत्मानुभव की चर्चा करते हैं, वह षड्दर्शनों का सत्य नहीं है, प्रत्युत अनुभूतिजन्य सत्य है । उनके अनुसार वादों की चर्चा तो केवल वाग्जाल है अर्थात् बोलने की चतुराई किंवा कला है। इससे आत्मतत्त्व का ज्ञान नहीं हो सकता। ऐसा नहीं है कि आनन्दधन ने दार्शनिक वादों का अध्ययन-मनन किए बिना ही दार्शनिक वादों की चर्चा को वाग्जाल कह दिया। भारतीय विचारधारा में प्रचलित आत्म-तत्त्व सम्बन्धी सभी मान्यताओं का भली-भाँति परिशीलन करने के बाद ही वे कहते हैं कि भिन्न-भिन्न दर्शनों में आत्म-तत्त्व की जो मीमांसा की गई है, उससे आत्म-तत्त्व का ज्ञान होने के बजाय बुद्धि भ्रमित हो , जाती है। ऐसी स्थिति में साधक के समक्ष कठिनाई होना स्वाभाविक है कि वस्तुतः आत्मतत्त्व क्या है ? इस प्रकार अनेक दर्शनों की मान्यताओं के विभ्रम में बुद्धि संकट में पड़ जाती है और इस संकट के कारण मुझे (साधक को) आत्म-तत्त्व की प्राप्ति नहीं होती।' उक्त समस्या के समाधान के लिए आनन्दघन का स्पष्ट कथन है कि मत-मतान्मनों के सभी ऐकान्तिक पक्षपात को छोड़कर और राग-द्वेष तथा मोह का परित्याग कर जो साधक आत्मा का ध्यान करता है, स्थिर चित्त से उसका चिन्तन करता है, वह १. इम अनेक वादी मत विभ्रम, संकट पडियो न लहै । : चित्त समाधि ते माटे पूछू, तुमविण तत कोण कहै ॥ -आनन्दघन ग्रन्थावली, मुनि सुव्रत जिन स्तवन ।
SR No.010674
Book TitleAnandghan ka Rahasyavaad
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages359
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size28 MB
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