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________________ १२२ आनन्दघन का रहस्यवाद की ओर इंगित करता है। अतः यहाँ सन्त आनन्दघन की कतिपय रहस्यात्मक उक्तियाँ व्याख्या सहित देना समीचीन होगा, जिससे उनकी बोध-वृत्ति और मौलिकता का अनुमान लगता है। निम्नोक्त पद में उन्होंने विचित्रताओं का एक विलक्षण रूप खड़ा किया है। वे कहते हैं कि 'हे अवधू ! जो योगी इस पद का गूढार्थ स्पष्ट कर दे, वही मेरा गुरु हो सकता है । एक वृक्ष है। जिसके न जड़ है, न छाया और न फूल । फिर भी, उस पर फल लगा हुआ है। उसे शाखा और पत्ते आदि कुछ भी नहीं हैं, किन्तु उसका अमृत-रस आकाश में लगा हुआ है। यह विचित्र वृक्ष आत्मा है। यहां आत्मा को वृक्ष का रूपक दिया गया है। आत्मारूपी एक वृक्ष है जिसकी कोई जड़ नहीं है, क्योंकि आत्मा अनादिकाल से है इसलिए इसका मूल कहीं भी नहीं खोजा जा सकता। इस मूल रहित वृक्ष को छाया भी नहीं है। चूंकि, आत्मा अरूपी है इसलिए उसका प्रतिबिम्ब नहीं पड़ सकता। इस मूल रहित अरूपी वृक्ष पर बिना फूल के ही मोक्षरूपी फल लगा हुआ है। इतना ही नहीं, इस वृक्ष के शाखा-पत्ते आदि कुछ नहीं है, तथापि परमानन्दरूप अमृत-रस सिद्ध-शिलारूप लोकाकाश के अग्रभाग में है। __ आत्मारूपी एक वृक्ष है । उस पर अन्तरात्मा और मनरूपी दो पक्षी बैठे हुए हैं । अन्तरात्मारूपी पक्षी गुरु है और मनरूपी पक्षी शिष्य । ___अन्तरात्मारूपी गुरु मनरूपी शिष्य को सत्प्रेरणा देता है और उसे अपने वश में रखने का प्रयास करता है किन्तु मनरूपी शिष्य स्वभाव से चंचल है । वह बाह्य-जगत् के विषय-वासनाओं में भटकता रहता है और संसार के पौद्गलिक पदार्थों को चुन-चुन कर खाने में संलग्न है जबकि अन्तरात्मारूपी गुरु संसार के बाह्यभावों से विमुख होकर निरन्तर निज गुणों में ही रमण कर रहा है। आनन्दघन का यह कथन कि 'तरुवर एक पंछी-दोउ बैठे, एक गुरु एक चेला'-मुण्डकोपनिषद् के उस रूपक की याद दिला देता है, जिसमें भोगों में आसक्त जीव और विषयों से उदासीन शुद्धात्मा में भेद का उल्लेख एक वृक्ष पर बैठे हुए दो पक्षियों द्वारा किया गया है। १. द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्व जाते। तयोरन्यः पिप्पलं स्वाहत्यनश्नन्नन्यो अभिचाकशीति ।। -मुण्डकोपनिषद्, ३३१४८
SR No.010674
Book TitleAnandghan ka Rahasyavaad
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages359
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size28 MB
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