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________________ आनन्दघन की विवेचन-पद्धति ११७ मत्सर इन षरिपु रूप छक्के पर भी विजय पा लेता है और जब पंजे, दु तथा छक्के पर जय हो जाती है तब मन रूप एक्का स्वतः जीता जा सकता है । इसी भाव को उत्तराध्ययन में इस रूप में व्यक्त किया है : एगे जिए जिया पंच, पंच जिए जिया दस । दसहा उ जिणित्ताणं सव्व सत्तु जिणामहं ॥ ' अर्थात् एक मन को जीत लेने पर पाँचों इन्द्रियों पर आत्मा की विजय हो जाती है । पाँचों इन्द्रियों पर विजय पा जाने के बाद पाँच प्रमाद और पाँच अव्रतों पर विजय प्राप्त कर ली जाती है और इसी प्रकार इन दसों को जीत लेने पर आत्मा के समस्त शत्रुओं को जीत लिया जाता है। अन्त में, आनन्दघन चौपड़ के खेल को समेटते हुए कहते हैं कि जिस प्रकार चौपड़ के खेल में पौ नहीं आती, तब तक सारें अपने गन्तव्य की ओर नहीं जा सकतीं। इसलिए वह खेल अधूरा ही रहता है । इसी तरह आत्मा में भी जब तक भाव-विवेक रूप पौ नहीं आती, तब तक चतुर्गति रूप चौपड़ का खेल अधूरा ही है । जब चतुर्गतिरूप चौपड़ खेलते हुए जीव को भाव-विवेक रूप ( शुभ अध्यवसाय रूप ) पाउ आता है तभी खेल में उसकी विजय होती है। पार पहुंचाने वाले अंक को 'पाउ' कहते हैं । चतुर्गति रूप चौपड़ के खेल में चौरासी लक्ष जीवयोनि में परिभ्रमण करते हुए संयोगवश मानव जीवन प्राप्त होता है और उसमें भी महादुर्लभ सम्यग्दर्शन रूप भाव-विवेक रूपी पाउ आता है तो ८४ लक्ष योनि मय चतुर्गतिरूप चौपड़ के खेल का अन्त आ जाता है और तब आत्मा मोक्ष रूपी घर में प्रवेश करता है । दूसरे शब्दों में, भाव-विवेक रूप पाउ के प्रकट होने पर आत्मा चतुर्गति रूप चौपड़ के खेल को जीतकर विजयी बन जाता है । यही चतुर्गति रूप चौपड़ के खेल का रहस्य है । इसी तरह आनन्दघन ने एक हिन्दू पौराणिक रूपक भी दिया है : समता रतनागर की जाई, अनुभव चंद सु भाई । कालकूट तजि भव में सेणी, आप अमृत ले जाई || लोचन चरण सहस चतुरानन, इनते बहुत डराई । आनन्दघन पुरुषोत्तम नायक, हितकरि कंठ लगाई ॥ १. उत्तराध्ययन, २३।३६ । २. आनन्दघन ग्रन्थावली, पद ४ ।
SR No.010674
Book TitleAnandghan ka Rahasyavaad
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages359
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size28 MB
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