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४४. वीतराग अवस्था हो परम पूजनीय है ४४ सच्चा सुकृतानुमोदन ४६. अरिहंतादि की शरणगगन ४७. स्वरूप बोध का कारण ४८. अात्मतत्त्व का स्मरण ४६. वीतराग अवस्था की सूझ-बूझ ५०. शरणगमन द्वारा चित्त का समत्व ५१ दया धर्मवृक्ष का मूल एवं फल ५२. कर्मक्षय का असाधारण कारण ५३. स्परूप की अनुभूति