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________________ ५४ यह योग्यता गर्हगीय-निन्दनीय की निन्दातथा अनुमोदनीय की अनुमोदना के परिणाम से प्रकट होती है । दुप्कृत मात्र की निन्दा होनी चाहिए तथा सुकृत मात्र की अनुमोदना होनी चाहिए । इन दोनो के होने पर ही राग-द्वेप की तीव्रता घट जाती है। राग का अनुराग नही होना तथा द्वाप के प्रति द्वीप की वृत्ति होना यह राग-द्वप की तीव्रता का अभाव है। दुप्कृत गर्दा तथा सुकृतानुमोदन की विद्यमानता में उसकी सिद्धि होती है। इससे वीतरागिता की शरण-गमन वृत्ति जागती है क्योकि वीतरागिता ही श्रद्धेय, व्येय तथा शरण्य है। पुन वीतरागिता अचिन्त्य शक्ति युक्त है, यह अनुभव होता है । राग परहित वीतराग अवस्था अचिन्त्यशक्ति-युक्त है। वह उससे विमुख रहने वाले का निग्रह तथा उसके सम्मुख होने वाले पर अनुग्रह करता है। लोकालोक प्रकाशक केवलज्ञान तथा केवलदर्शन जो आत्मा का सहज स्वरूप है, उस वीतराग अवस्था मे ही प्रकाशित उद्भासित होता है, अन्य अवस्था मे विद्यमान होने पर भी वह अप्रकट रहता है। केवलज्ञान--केवलदर्शन द्वारा लोकालोक का भाव हस्तामलकवत् प्रतिभासित होता है। वह सभी द्रव्यो के त्रिकालवर्ती सभी पर्यायो का ग्रहण करता है। समय-समय पर जान से सभी को जानता है तथा दर्शन द्वारा सभी को देखता है। ___ वीतरागिता की शरण मे रहने वाले को उसके ज्ञानदर्शन का लाभ मिलता है। इस जानदर्शन से प्रतिभासित सभी पदार्थी के सभी पर्यायो आदि की क्रमवद्धता निश्चित हाता है जिससे जगत मे बने हए, बन रहे तथा भविष्य मे वनने वाले अच्छे तथा बूरे कार्यों में रागद्वेप तथा हर्ष-शोक की कल्पनाएँ नष्ट होती है।
SR No.010672
Book TitleMahamantra ki Anupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadrankarvijay
PublisherMangal Prakashan Mandir
Publication Year1972
Total Pages215
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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