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________________ ४७ आत्मा में स्थित अचिन्त्य शक्ति का स्वीकरण इस प्रकार वीतरागिता निष्क्रियता स्वरूप नही, सर्वोच्च सक्रियता रूप है । वह क्रिया अनुग्रह - निग्रह रूप है तथा अनुग्रह - निग्रह रागद्वे प के प्रभाव मे से उत्पन्न हुई श्रात्मरूप है । आत्मा की सहजशक्ति जब आवरण रहित होती है तब उसमे से एक तरफ सर्वज्ञता - सर्वदर्शिता प्रकट होती है तथा दूसरी तरफ निग्रह - अनुग्रह सामर्थ्य प्रकट होता है । उन दोनो को प्रकटीभूत करने का उपाय प्रावरण रहित होना है । आवरण रागद्व ेप तथा प्रज्ञानरूप है । ग्रज्ञान टालन े हेतु स्वअपराध का स्वीकररण तथा परकृत उपकार का श्रगीकार तथा इन दोनो के साथ प्रचिन्त्यशक्तियुक्त श्रात्मतत्त्व का श्राश्रय अनिवार्य है । श्रात्मतत्त्व के श्राश्रय का अर्थ है आत्मा मे स्थित अचिन्त्यशक्ति का स्वीकरण । यह स्वीकरण होन े से अनन्तानुबन्धी राग-द्व ेप टल जाते हैं । ग्रननुभूतपूर्व समत्वभाव प्रकट होता है । यह समत्वभाव अपक्षपातिता तथा माध्यस्थ्यवृत्तिता रूप है । स्वदोष ही बड़े से बडे पक्षपात का विषय है । स्वय निर्गुरण तथा दोषवान होते हुए भी अपने को निर्दोप तथा गुणवान मानने का वृत्तिरूप पक्षपात समत्वभाव से टल जाता है । वीतराग अवस्था ही परम पूजनीय है ऐसा माध्यस्थ्यवृत्तिता रूप समत्वभाव द्वेष दोष का प्रतिकार रूप है क्योकि परकृत उपकार का महत्त्व स्वकृत उपकार के महत्त्व के समान ही है या उससे भी अधिक है । दोनों प्रकार का समत्व राग-द्व ेष को निर्मूल कर आत्मा के शुद्ध स्वभाव रूप केवलज्ञान - केवलदर्शन को उत्पन्न करता है । उसमें लोकालोक प्रतिभासित होते हैं परन्तु वह किसी से भी
SR No.010672
Book TitleMahamantra ki Anupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadrankarvijay
PublisherMangal Prakashan Mandir
Publication Year1972
Total Pages215
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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