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________________ २७ अल्पाधिक अश मे सिद्ध होते दिखाई देते है । प्रत मनोगुप्ति की भाँति नवकार को भी चौदह पूर्व का सार कहा है । चौदह पूर्व का सार जिस प्रकार नवकार है, वैसे ही अष्ट प्रवचन माता भी है । प्रष्टप्रवचन माता मे भी मनोगुप्ति प्रधान है | शेप गुप्तियाँ तथा समितियाँ मनोगुप्ति को सिद्ध करने के लिए ही कही गई है। दूसरी प्रकार से चौदह पूर्व का अभ्यास कर के भी अन्त मे प्रष्टप्रवचन माता के परिपूर्ण पालन स्वरूप पचपरमेष्ठि पद को ही प्राप्त करना है । महामन्त्र का जाप व चिन्तन पाँच परमेष्ठियो पर प्रीति व भक्ति जाग्रत करता है तथा इस स्वरूप को प्राप्त करने की तत्परता ( तमन्ना ) उत्पन्न करता है व अन्त मे उस स्वरूप को प्राप्त करवाकर विरमित होता है । अत नवकार, चौदह पूर्व एव प्रष्टप्रवचन माता एक ही कार्य को सिद्ध करने वाला मन्त्र होने से समानार्थक एक प्रयोजनात्मक एव परस्पर पूरक बन जाता है । तत्त्वरुचि-तत्त्वबोध-तत्त्वपरिणति नवकार के प्रथम पद की अर्थभावना अनेक प्रकार से विचारी जा सकती है । नमोपद से तत्त्वरुचि, अरिह पद से तत्त्वबोध तथा ताण पद से तत्त्वपरिणति ली जा सकती है । नमोपद श्रात्मतत्त्व की रुचि जाग्रत करता है, अरिह पद शुद्ध आत्मतत्त्व को बोध कराता है एव तारण पद आत्मतत्त्व की परिणति उत्पन्न करता है । श्री विमलनाथ प्रभु के स्तवन मे पू० उपाध्याय श्री यशोविजयजी महाराज कहते है कि- तत्त्व प्रीतिकर पाणी पाए विमला लोके प्रांजीजी, लोयण गुरु परमान्न दिए तव भ्रमनां खेस विभांजी जी ।
SR No.010672
Book TitleMahamantra ki Anupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadrankarvijay
PublisherMangal Prakashan Mandir
Publication Year1972
Total Pages215
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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