SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 32
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २४ वहाँ उष्णता होती ही है । उष्णता कफ के प्रकोप को शान्त करती है । इस प्रकार श्री पचमगल मे शरीर के अस्वास्थ्य उत्पन्न करने वाले त्रिदोष को शान्त करने की शक्ति है । 1 दूसरी प्रकार से विचारने से यह ज्ञात होता है कि राग ज्ञान गुरण का घातक है, द्वेष दर्शन गुरण का घातक है एव मोह चारित्र गुण का घातक है । इससे विपरीत पचमगल मे ज्ञान है, दर्शन है, चारित्र है तथा मन की, वचन की, काया की प्रशस्त क्रिया है । श्रत पचमगल मे देह को दूषित करने वाले वात, पित्त एव कफ दोष को शमित करने की शक्ति है, वैसे ही आत्मा को दूषित करने वाले राग, द्वेष एव मोह को भी शमित करने की शक्ति है । वात रोग से व्यक्ति वातुल हो जाता है, पर ज्ञान के आने पर वाचाल भी मौन हो जाता है । विकृत ज्ञान राग है, विकृत श्रद्धा दोप है एव विकृत वर्तन मोह है । रागी दोप को नही देखता, द्वेषी गुरण को नही देखता एव मोही जानता हुआ भी विपरीत वर्तन करता है । गुरण एव दोप का यथार्थ ज्ञान करने हेतु राग एव द्वेष को तथा यथार्थ वर्तन करने हेतु मोह को जीतना चाहिए जहाँ आचरण मे दोप होगा वहाँ ज्ञान दूषित भी होगा ही, यह नियम नही है | ज्ञान यथार्थ होते हुए आचरण के दूपित होने मे कारण प्रमादशीलता, दुस्सग एवं अनादि असदभ्यास हैं । इस कारण रागादि दोपो का निग्रह करने हेतु यथार्थ ज्ञान एवं दूसरी तरफ यथार्थ आचरण का अभ्यास आवश्यक है | a ज्ञान मन मे, स्तुति-स्तवन वचन मे एव प्रवृत्ति काया द्वारा निष्पन्न होती है । कफ दोष, काया की, पित्त दोष वचन की एव वात दोष मन की क्रिया के साथ सम्बन्ध रखता है ।
SR No.010672
Book TitleMahamantra ki Anupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadrankarvijay
PublisherMangal Prakashan Mandir
Publication Year1972
Total Pages215
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy