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________________ १३ जो दोष स्वयं को वाधक प्रतिभासित होता है उस दोष को दूर करने का उपाय उस दोप से मुक्त हुए मुनियो के गुणो के विपय में प्रमोद भाव धारण करना है। दोप-मुक्त यतियो के गुणों के विषय में प्रमोद भाव को धारण करने वाला जीव उन दोषो से स्वयमेव मुक्त वन जाता है। पच परमेष्ठि नमस्कार मन्त्र का स्मरण परमेष्ठि पद में विराजमान महामुनियो के गुणो के विषय में बहुमान भाव उत्पन्न करता है जिससे स्मरण करने वाले के अन्तःकरण मे स्थित समस्त दोष स्वयमेव उपशान्ति को प्राप्त होते हैं। काम दोष का प्रतिकार स्थलिभद्र मुनि का ध्यान है, क्रोध दोष का प्रतिकार गजसुकुमाल मुनि का ध्यान है, लोभ दोष का प्रतिकार शालिभद्र एव धन्य कुमार मे स्थित तप, सत्य, सन्तोप आदि गुणो का ध्यान है। इस प्रकार मान को जीतने वाले बाहुबलि एव इन्द्रभूति, मोह को जीतन वाले जम्बूस्वामी एव वज्रकुमार, मद, मान एवं तृष्णा को जीतने वाले मल्लिनाथ, नेमिनाथ एव भरत चक्रवर्ती अादि महान् अात्मायो का ध्यान उन-उन दोपो को जीतने वाला होता है। श्री नमस्कार मन्त्र मे मद, मान, माया, लोभ, क्रोध, काम एव मोह आदि दोपो पर विजय प्राप्त करने वाले समस्त महापुरुषो का ध्यान होने से ध्याता के वे सभी दोष समूल विनष्ट हो जाते हैं। इस प्रकार नमस्कार मन्त्र दोपो की प्रतिपक्ष भावना रूप वन गुणकारी होता है। इसी अथ को बताने वाला नीचे का एक श्लोक एवं उसकी भावना नमस्कार की ही अर्थ-भावना स्वरूप बन जाती है धन्यास्ते वंदनीयास्ते, तैस्त्रैलोक्यं पवित्रितम् । यैरेप भुवनक्लेशी काम-मल्लो विनिजितः ।। धर्मविन्दु टीका
SR No.010672
Book TitleMahamantra ki Anupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadrankarvijay
PublisherMangal Prakashan Mandir
Publication Year1972
Total Pages215
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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