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________________ विजली के प्रवाह मे विजली का सामर्थ्य गुप्तरीति से निहित है वैसे ही मत्र में उसके देवता का दिव्यसामर्थ्य दिव्यतेज गुप्त रीति से निहित होता है। अनुकूल द्योतन द्वारा उसे प्रकट किया जा सकता है । जो साधक की आत्मा को दिव्यता प्रदान करे उसे देव कहते है। देवता, ऋषि, छन्द तथा विनियोग, ये चार वस्तुएं मत्र में महत्त्व को है। ___ जप को यज्ञ भी कहते है । जपयन मे होम करने का पदार्थ अहकारभाव है। अहकारभाव के कारण ही जीव का शिवस्वरूप विस्मृत हो गया है। आत्मारूपी देव के समक्ष जीव का अहकारभाव समर्षित करना है। यह क्रिया ही चित्तप्रसाद को प्रकट करती है। मन्त्रजाप के साथ मन्त्रदेवता का एवं मन्त्रप्रदाता सद्गुरु का ध्यान भी चित्त मे रहना चाहिए । 'नम' शब्द के उच्चारण होने के साथ ही भाव, वारगी तथा शरीर इष्ट को समर्पित हो जाने चाहिए। उन तीनो पर ममत्व का अभिमान छूट जाना चाहिए। यह अभिमान ज्यो ज्यो छूट जाता है वैसेवैसे मत्रदेवता के साथ एकता साधित होती है । जितने अक्षर का मत्र हो उतने लक्ष जाप करने से एक पुरश्चरण होता है। उपास्य देवता के साक्षात्कार के लिए ऐसे पुरश्चरणो की खास आवश्यकता होती है । पुरश्चरण के समय उपासक की अनेक प्रकार की कसौटी होती है । उस समय क्षोभरहित वैर्य धारण करने वाले को मत्रसाक्षात्कार होता है। स्व पर नियंत्रण प्राप्त करने का महामंत्र विश्व पर नियंत्रण प्राप्त करने हेतु स्व पर नियत्रण प्राप्त करना चाहिए । स्वय की प्रकृति पर नियत्रण प्राप्त करने हेतु अपनी पाचो इन्द्रियो एव छठे मन पर नियन्त्रण करना चाहिए।
SR No.010672
Book TitleMahamantra ki Anupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadrankarvijay
PublisherMangal Prakashan Mandir
Publication Year1972
Total Pages215
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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