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________________ २० 'सर्वे जीवात्मन. तत्त्वतः परमात्मान एव' । अर्थात्-"सभी जीवात्मा तत्त्व से परमात्मा हैं", इस प्रकार से स्वय की प्रात्मा मे ही स्वय के शुद्द स्वरूप के मनन को ही मन सज्ञा प्राप्त होती है-'मननान्मत्र'। पुन पुन इस प्रकार की मत्रा-गुह्यकथनी स्वय के सकुचित स्वरूप का त्याग कर निस्सीम स्वरूप का भान कराती है। यह बोध जैसे जैसे दृढ होता जाता है वैसे वैसे सकल्प-विकल्प से मुक्ति दिला कर निर्विकल्प अवस्था की प्राप्ति करवाता है। उसे निज शुद्ध स्वरूप की अनुभूति अथवा निर्विकल्प चिन्मात्र समाधि रूप मे पहिचाना जाता है। 'नमो' मत्र द्वारा यह सब काम शीघ्र होने से वह महामत्र कहलाता है। मर्वशिरोमणि मंत्र शुद्ध पात्म-द्रव्य की अनुभूति मोदक के स्थान है उसका ज्ञान गुड के स्थान पर है एव उसकी श्रद्धा घी के स्थान पर है। शुद्ध प्रात्मद्रव्यपूर्ण ज्ञान एव श्रद्धा के साथ होता उसका ध्यान, स्मरण, रटन आदि आटे के स्थान पर है। __ शुद्ध पात्म-स्वरूप के लाभ की इच्छा के अतिरिक्त सभी इच्छानो का जिसमे निरोध है ऐसी तप रूपी अग्नि मे प्रात्मध्यान स्पी पाटे के रोट बनाकर उन्हे सत्क्रियाओ से कट कर उसमे श्रद्धा रूपी घी एवं ज्ञान रूपी गुड मिलाकर जो मोदक तैयार होता है वहीं मोक्ष-मोदक है एव उसमे ससार के सव प्रकार के सुखो के ग्राम्वाद से अनन्तगुणा अधिक मुखास्वाद निहित है। निश्चयनय से आत्मा के शुद्ध एव पूर्ण स्वरूप का ज्ञान एवं श्रद्धान तथा व्यव्हारनय से शुद्र स्वरूप में उपयोग स्पी
SR No.010672
Book TitleMahamantra ki Anupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadrankarvijay
PublisherMangal Prakashan Mandir
Publication Year1972
Total Pages215
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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