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________________ ८ यह समझा जाता है कि वासना, तृष्णा तथा ममता के मूल मे स्नेह की सकीर्णता है । जब जीव को यह श्रवगति होती है कि स्नेह की मकीर्णता ही ममतादि सभी दोषों का मूल है तभी वह उसे निष्कासित करने हेतु उपाय ढूंढता है इस उपायान्वेषण के समय उसे श्री नमस्कार मन्त्र पर सर्वाधिक आदर उत्पन्न होता है। श्री नमस्कार मन्त्र पर अधिक यादर भाव रखने से समस्त जीवराशियो पर स्नेह का परिणाम व्याप्त हो जाता है । सकीर्ण ममता या वासना का कारण सकीर्ण स्नेह जव व्यापक तथा पूर्ण वनता है तभी वह समता का हेतु बनता है । जव यह समझा जाता है कि समता की सिद्धि का उपाय स्नेह की व्यापकता है तथा स्नेह की व्यापकता का उपाय निष्काम भावयुक्त, स्नेह पूर्ण श्री पचपरमेष्ठि का नमस्कार है तभी नमस्कार मन्त्र की सिद्धि मानी जाती है । साध्य, साधन एवं साधना यह सत्य है, मनुष्य मात्र मे थोड़ी बहुत मात्रा मे वासना तथा इच्छा रूप निर्बलता विद्यमान है पर इस निर्वलता पर विजय प्राप्त करने का सामर्थ्य भी उसमे विद्यमान है । मनुष्यमात्र से उच्चगुरणो क वीज सुप्त रूप मे पड़े हुए रहते हैं । जब वह सर्वोत्कृष्ट गुरणी की शरण मे जाता है तब वे बीज प्रकुरित हो जाते है। जब तक वह सर्वोत्कृष्ट की शरण स्वीकार नही करता तब तक उसके अन्तर्हित वीज प्रकुरित, पल्लवित तथा फलान्वित नही हो सकते हैं । सिद्ध होना श्रर्थात् पूर्णत्व प्राप्त करना ही अन्तिम ध्येय है । इस ध्येय एव श्रादर्श को सिद्ध करने हेतु हृदय मे श्री पंचपरमेष्ठि का व्यान श्रावश्यक है । श्री नमस्कार मन्त्र के स्मरण द्वारा इस ध्यान को स्थायी बनाया जा सकता है ।
SR No.010672
Book TitleMahamantra ki Anupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadrankarvijay
PublisherMangal Prakashan Mandir
Publication Year1972
Total Pages215
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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