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________________ ५८ अष्टमद है, उसका समूल नाश करने की शक्ति विनयगुण में है, नम्रवृत्ति मे है। मेरी आत्मा अनादि कर्म के सम्बन्ध से तुच्छ, क्षुद्र, परवश तथा पराधीन दशा मे है ऐसा ज्ञान भी जिन वचन द्वारा होने से जाति कुल, रूप, वल, लाभ, ऐश्वर्यादि कर्मकृत भावो का अभिमान गल जाता है तथा जीव मे सच्ची नम्रता आती है । अत धर्म को सानुबन्ध बनाने वाला नमस्कार भाव है यह वाक्य सत्य सिद्ध होता है । अप्ट मद के कारणभूत अष्टकर्म, अष्टकर्म के कारणभूत चार कषाय, चार सजा तथा पांच विषय प्रादि से भयभीत जीव ही वास्तविक धर्म को प्राप्त करने का पात्र है। धर्म प्राप्त जीवो पर उसकी भक्ति तथा प्रमोद जाग्रत होता है तथा धर्म अप्राप्त जीवो के प्रति करुणा एव माध्यस्थ्य आता है। इन चार भावो रहित धर्मानुष्ठान मे किसी न किसी प्रकार का मद भाव छिपा हुआ है । अत. वह सानुवन्ध धर्म नहीं बनता है। धर्म को सानुबन्ध बनाने हेतु कर्म के विचार के साथ गुणादिको के प्रति प्रमोद तथा दु खादिको के प्रति करुणा आदि भावो की भी उतनी ही आवश्यकता है । सर्वश्रेष्ठ महामन्त्र __जो तीनो भूवनो के लिए नमस्करणीय बने है, वे इसी श्रात्मदृष्टि भाव के स्पर्श से बने है कि उनसे छोटा कोई नहीं है। अत नमस्करणीयो को किया नमस्कार अपन हृदय मे सच्चा नमस्कार भाव लाता है । नमस्कार मन्त्र तभी प्रभावी बनता है जव यह समझा जाता है कि आत्मदृष्टि से अपने से कोई छोटा नही है। ऐसे भावनमस्कार को प्राप्त करके ही जीव मोक्ष गए हैं तथा जा रहे हैं। आत्मदृष्टि से मुझसे कोई छोटा नहीं, क्योकि सभी प्रात्मस्वरूप से समान है। देहदृष्टि से मुझे से कोई मोटा नही, क्योकि कर्मकृत भाव सबके लिए समान हैं। कर्मकृत शुभ भी परिणाम दृष्टि से अशुभ अथवा विनश्वर है । कोई छोटा नही यह विचार गर्व को रोकता है तथा कोई बड़ा नही यह विचार दैन्य को रोकता है। दया धर्म की माता है तथा दान-पिता है । माया पाप की माता है तथा मान पिता । दान से मान का नाश होता है तथा' दया से माया का नाश होता है। दान में सर्वश्रेष्ठ दान सम्मान का दान है । श्री नमस्कार
SR No.010672
Book TitleMahamantra ki Anupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadrankarvijay
PublisherMangal Prakashan Mandir
Publication Year1972
Total Pages215
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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