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________________ ५४ भा कई अर्थ है । श्रुतज्ञान को भी शुभ ध्यान कहा जाता है । चिन्ता तथा भावनापूर्वक स्थिर श्रध्यवसाय को भी ध्यान कहा गया है । निराकार निश्चल वुद्धि, एक प्रत्ययसन्तति, सजातीय प्रत्यय की धारा, परिस्पन्दवर्जित एकाग्र चिन्तानिरोध श्रादि उनके ध्यान के अनेक पर्याय कहे गये है उन सबका सग्रह परमेष्ठि ध्यान मे समझना चाहिये । कमलवन्ध से, त्रिकरण शुद्धि से तथा विन्दुनवक से भी नमस्कार का ध्यान हो सकता है । नमस्कार के ध्यान का फल लेश्याविशुद्धि याने माया, मिथ्यात्व तथा निदान, इन तीनो शल्य से रहित चित्त के परिणाम है। श्रद्धालु श्रात्मा जो कोई क्रिया करती है वह दूसरो कोनीचे गिराने के लिए या अपने उत्कर्ष के लिए नही होतो । जिसमे मुख्यत परापकर्ष की वृत्ति होती है वह माया शल्य है एव जिसमे मुख्यत. स्वोत्कर्ष साधने का मनोरथ हो वह निदान शल्य है | जिसमे स्वमति की कल्पना मुख्य हो वह मिथ्यात्व शल्य है । क्रिया की सफलता हेतु प्रत्येक क्रिया माया, मिथ्यात्व तथा निदान - इन तीन शल्य से रहित होनी चाहिये श्रर्थात् निर्दम्भ, नि.शंक तथा निराशस भाव से होनी चाहिये । श्री नमस्कार का ध्येयनिष्ठ आराधन जीव को निर्दम्भ, नि शक तथा निष्काम बनाता है क्योकि उसमे ममत्व - भावका शोषण तथा समत्व भाव का पोषरण होता है । लेश्याविशुद्धि एवं स्नेह-परिणाम 1 श्री नमस्कार मन्त्र के आराधन से दूसरे भी तीन गुरण पुष्ट होते है । वे है क्षमता, दमता, तथा शमता । क्षमता प्रर्थात् क्रोधरहितता, दमता अर्थात् कामरहितता तथा शमता श्रर्थात् लोभरहितता । दूसरो को अपने समान देखने वाला किस पर क्रोध करे ? दूसरे को पीडा हो उस प्रकार के काम श्रथवा लोभ का सेवन भी वह किस प्रकार करे ? दूसरे के
SR No.010672
Book TitleMahamantra ki Anupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadrankarvijay
PublisherMangal Prakashan Mandir
Publication Year1972
Total Pages215
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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