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________________ ५१ भी है । अव्ययपद ही ज्ञातव्य ध्यातव्य एवं प्राप्तव्य है । वाक्य मे कर्त्ता, कर्म एव क्रिया तीन होते है । यहाँ नमो अव्यय होने से उसमे मात्र क्रिया है पर कर्त्ता या कर्म नही । साधना के समय जब कर्त्ता एव कर्म गौरग होते है तथा उपयोग मे मात्र क्रिया रहती है तभी साधना शुद्ध होती है । नमो पद का उच्चारण ही क्रियावावक हो किसी श्रेष्ठ तत्त्व का सीधा भान कराता है अथवा ध्याता, ध्येय तथा ध्यान इस त्रिपुटी मे से जब ध्याता का विस्मरण हो जाता है तब मनोवृत्ति केवल ध्येयाकार वनती है, तथा ध्यान यथार्थ हुग्रा माना जाता है । नमस्कार की क्रिया मे भी जब कर्त्ता तथा कर्म का विस्मरण हो केवल क्रिया रहती है तभी साधना शुद्ध हुई गिनी जाती है । फिर नमो पद का उच्चारण ही वैखरीवाणी का प्रयोग है अत वह क्रियायोग है। अर्थ का भावन ही मध्यमावाणी हो भक्तियोग है | नमस्कार की अन्तरक्रिया पश्यन्ती रूप है प्रत. वह ज्ञानयोग है । इस प्रकार कर्म, भक्ति तथा ज्ञान इन तीनो योगो की साधना नमो पद में निहित है । निर्मल वासना नमस्कार की साधना से मलिन वासनाश्रो का त्याग होता है, निर्मल वासना का स्वीकररण होता है तथा अन्त मे चिन्मात्र वासना अवशिष्ट रहती है । मलिन वासना दो प्रकार की होती है -- एक बाह्य है तथा दूसरी आन्तर । विषयवासना बाह्य तथा मानसवासना ग्राभ्यन्तरिक है। विपयवासना स्थूल है तो मानसवासना सूक्ष्म है । विपयो के भोग काल मे उत्पन्न - हुए सस्कार, विषयवासना है तथा विपयो की कामना के काल मे उद्भूत सस्कार, मानसवासना है । दूसरी प्रकार से लोकवासना अथवा देहवासना ही विपयवासना है तथा दम्भ, दर्पादि ही मानसवामना है | नमस्कार भाव तथा नमस्कार की क्रिया में वाह्यान्तर उभय प्रकार की मलिन वासना का
SR No.010672
Book TitleMahamantra ki Anupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadrankarvijay
PublisherMangal Prakashan Mandir
Publication Year1972
Total Pages215
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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