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________________ प्रथमपद में समन मोनमार्ग मैत्री एव भक्ति सम्यग्दर्शन के लक्षण है। उनके पीछे सम्यक्नान होना आवश्यक है । वह ज्ञान एकत्व का है । जीव, जगत् एव जगदीश्वर की एकता का ज्ञान ही सच्ची भक्ति एव मित्रता को प्रकट कर सकता है । यह एकता, गुण, जाति एव स्वभाव से है । मजातीय एकता के सम्बन्ध का ज्ञान भक्तिप्रेरक एव मैत्रीप्रेरक होता है अत वह सम्यग् ज्ञान है । जहाँ सम्यग् ज्ञान एव सम्यग्दर्शन होता है, अविनाभावरूप से चारित्र वहाँ निश्चय रूप से रहेगा । जान और दर्शन तभी सत्य माने जाते हैं कि जब वे जीवन मे क्रियान्वित हो । उस निर्मल आचरण का नाम ही चारित्र है । उस चारित्र के दो प्रकार है एक प्रवृत्तिनिवृत्तिरूप एव दूसरा स्वभावरमणतारूप। स्वभावरमगतारूप चारित्र तो व्यवहारचारित्र का फल है । हिंसादि प्रास्रवो से निवृत्ति एव क्षमादि धर्मो मे प्रवृत्ति ही व्यवहारचारित्र है। मैत्री से हिंसादि का निरोध होता है एव भक्ति से स्वरुपरमणता विकसित होती है। कषाय के अभाव को लाने में मैत्री ही मुख्य है एव भक्ति ही मुख्यत विपयासक्ति को हटाने वाली है। भक्ति का विपय सर्वश्रेष्ठ परमात्त्मतत्त्व है अत भक्ति के प्रभाव से तुच्छ विषयो का आकर्षण अपने आप चला जाता है। विपय कपाय को जीतने वाली आत्मा स्वय ही मोक्ष है । भक्ति तथा मैत्री उसके साधन है। उनको विकसित करमे वाला मन्त्र नवकार अथवा उसका प्रथमपद है । अत श्री नयस्कार मत्र मे रत्नत्रयी स्थित है । सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र अात्मा के तीन मुख्य गुण है। श्री अरिहतो को नमस्कार ज्ञानादि तीनो गुणो को विकसित करता है क्योकि उस मन्त्र से भक्ति तथा मंत्री साक्षात् पुष्ट होती है,चैतन्य के साथ वह एकता का ज्ञान करवाता है तथा विपय-कपाय
SR No.010672
Book TitleMahamantra ki Anupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadrankarvijay
PublisherMangal Prakashan Mandir
Publication Year1972
Total Pages215
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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