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________________ ४२ · से नमस्कार करने वाला अपने मन वचन काया को प्रभु को सोंपता है । उसके बदले मे नमस्कार करने वाले को प्रभु ज्ञान दर्शन - चरित्र स्वरूप परमात्मपद को अर्पित करते हैं। जगत मे सर्वश्र ेष्ठ दान परमात्मा का दान है । परमात्मा को नमस्कार करन े वाला स्वयं उस दान को प्राप्त करने का अधिकारी बनता है नमस्कार करने से अधिकारी बने उस जीव को परमात्मा अपने पद को ही सोप देते हैं । भक्त 'नमो अरिहंताण' वोलता है | उसके बदले मे भगवान, भक्त को 'तत्त्वमसि' कह कर 'तू ही भगवान है' ऐसा वचन देते हैं । सुख दुख का ज्ञाता एव राग द्वेष का द्रष्टा जो हो सकता है वह स्वयं अशत भगवान है क्योकि उसकी वह साधना ही कालक्रम से साधक को केवलज्ञान एव केवलदर्शन प्रदान करन े वाली होती है । केवलज्ञान गुण एव केवलदर्शन गुरण के अधिकारी होन े के लिए द्रष्टा भाव एव ज्ञाता भाव समायोजित करना सीखना चाहिये । सुख दुख कर्म के फल हैं एव राग द्वेष स्वयं भावकर्मस्वरूप हैं । भाव कर्म का कर्तृत्व एवं कर्म फल का भोक्तृत्व छोड़कर जीव जब उसका ज्ञातृत्व एवं द्रष्टत्व मात्र अपने मे स्थिर करता है तब वह निश्चय तत्त्व का ज्ञाता बनकर मोक्ष मार्ग में प्रयाण प्रारम्भ करता है । ज्ञातृत्व - द्रष्टृत्व भाव जब परिपक्व बनते हैं तब वह जीव योगशिखर पर आरूढ होकर मोक्ष के सुख को सिद्ध करता है । भक्ति एवं मैत्री का महामन्त्र सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्राणि मोक्षामार्गः ; इस सूत्र मे सम्यक् दर्शन का सक्षिप्त अर्थ जिन भक्ति एवं जीव मैत्री है | सम्यक् ज्ञान का संक्षिप्त अर्थ जिन-स्वरूप ही
SR No.010672
Book TitleMahamantra ki Anupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadrankarvijay
PublisherMangal Prakashan Mandir
Publication Year1972
Total Pages215
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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