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________________ ३५ तरंगायित रहता है | श्री नमस्कार मन्त्र ससत्संग शुभ ध्यान होने से निस्तरंग अवस्था की प्राप्ति में सहायक होता है । सन्तो के विना गूढ बात का तार निकलता नही, अनन्त की यात्रा में सन्त की सहायता अनिवार्य है । नमस्कार में सन्त की पूरी-पूरी सहायता होने से गूढ बात का सार प्राप्त किया जा सकता है । चालम्बन के प्रति प्रादर आलंबनादरोद्भूत-प्रत्यूहक्षययोगतः । ध्यानाद्याराहणभ्रंशो योगिनां नोपजायते ॥ श्री अध्यात्मसार. भावार्थ - श्रालम्वनो के आदर से उत्पन्न हुआ विघ्नो का क्षय योगी पुरुषो को ध्यानादि के आरोहरण से च्युत नही होन े देता, अत. सदालम्बनो का सेवन निरालंबन ध्यान में जाने हेतु सेतुरूप है एवं उसमे जाने के पश्चात् फिर पतन न हो इस हेतु वह आधार आलम्बन रूप बन जाता है | "एगो मे सास अप्पा नारणदंसणसंज्जु ।” अथवा शुद्ध बुद्ध चैतन्यमय, स्वयज्योति, सुख, ध्यान इत्यादि विशेषणो वाला शुद्ध स्वरूप श्री परमेष्ठि भगवान् मे श्राविर्भूत है । उनसे सम्बन्ध स्थापित करान े वाला भी परमेष्ठि मन्त्र है, श्रत वह सभी मन्त्रो मे शिरोमणिभूत मन्त्र है । सभी तत्त्वो में शिरोमणिभूत तत्त्व आत्म-तत्त्व है और उसमे भी शिरोमणिभूत शुद्ध परमात्मतत्त्व है उसे सीधा नमस्कार परमेष्ठि मन्त्र से ही पहुँचता है । यह नमस्कार प्रतिबिम्बित क्रिया रूप होकर अपने शुद्ध स्वरूप मे पहुँचता है | शुद्ध स्वरूप का मूल्य अपरम्पार है । शुद्ध स्वरूप चैतन्य का महासागर है । उसके आगे जड सुवर्ण एव रत्न के पर्वत भी मूल्यहीन हैं ।
SR No.010672
Book TitleMahamantra ki Anupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadrankarvijay
PublisherMangal Prakashan Mandir
Publication Year1972
Total Pages215
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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