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________________ २८ दया भूतेषु वैराग्य, विधिवत् गुरुपूजनम् । विशुद्धा शीलवृतिश्च, पुण्यं पुण्यानुबन्ध्यदः । परोपतापविरतिः परानुग्रह एव च । स्वचित्तदमन चैव, पुण्य पुण्यानुवन्ध्यद.। भावार्थ-श्री नमस्कार मंत्र मे पुण्यानुवन्धी पुण्य की प्राप्ति का उपर्युक्त समस्त उपायो का संग्रह है क्योकि श्री नमस्कार मत्र से भूतदया का परिणाम जागता है, समार के मुखो के प्रति उदासीनता का भाव जागता है, देव गुरु की विधिवत् एकाग्रचित्त से उपासना होती है, दया-दान-परोपकार-सदाचार आदि का पालन करने की शीलवृत्ति जागती है, पर पीडा से निवृत होने की एव दूसरे को सहायरूप बनने की वृति उत्पन्न होती है, चित्तवृति की अशुद्धि का क्षय होता है एव विशुद्ध चित्त की उत्पत्ति होती है । साथ ही विशुद्ध चित्त मे आत्मज्ञान का प्रतिविम्ब पडता है एव प्रात्म जान मोह क्षय कारण बन मोक्षसुख प्रदान करवाता है। इन सभी लाभो का मूल श्री नमस्कार मन्त्र की आराधना ही है । अत श्री नमस्कार महामन्त्र की आराधना को शास्त्रो में शिवसुख का अद्वितीय कारण माना है। नमस्कार शास्त्रों का महान् अादेश अज्ञान एव अहम्मन्यता के अाग्रह को मिटाने हेतु नमस्कार अनिवार्य है । नमस्कार का अर्थ है देव गुरु की आधीनता का स्वीकार । देव गुरु को नमस्कार करना शास्त्रो का महान् आदेश है। शास्त्रो के इस आदेश को समझने हेतु बुद्धि की आवश्यकता है । जिसमे स्वय प्रना नही होती है, शास्त्र उसका क्या लाभ कर सकते हैं । यहाँ प्रज्ञा का अर्थ है सद्बुद्धि
SR No.010672
Book TitleMahamantra ki Anupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadrankarvijay
PublisherMangal Prakashan Mandir
Publication Year1972
Total Pages215
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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