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________________ - - में शुगलकिशोर मुखार "पुगवीर" व्यक्तित्व एवं कृतित्व इस अर्थ को देखकर उन्होंने बड़ी प्रसन्नता प्रकट की और कहा की काल का वर्णन तो अगले श्लोक में एक मुक्त या उपवास के समय सामायिक विशेष रुप से करना चाहिए, दूसरे दिन प्रातःकाल उन्होंने वीर सेवा मंदिर सरसावा में ही मेरा शास्त्र प्रवचन रखा। शास्त्र प्रवचन में मैंने प्रकरण प्राप्त अनेकान्त शब्द की व्याख्या करते हुए कहा कि अनेक का अर्थ ऐसा नहीं है कि नीबू खट्टा भी है पीला भी है गोल भी है। किन्तु परस्पर विरोधी नित्यअनित्य, एक-अनेक आदि दो धर्म ही अनेक कहलाते हैं। विवक्षा वश उन दोनों धर्मों का परस्पर समन्वय किया जाता है। व्याख्या को सुनकर आप बहुत प्रसन्न हुए। अनेकान्त में अनेक शब्द का परस्पर विरोधी दो धर्म ऐसा अर्थ करना संगत है। विरोधी नित्य-अनित्य, एक-अनेक अर्थ होते हैं। आप समन्तभद्र स्वामी के बहुत ही भक्त थे। भारतवर्षीय दिगम्बर जैन विद्वत् परिषद की ओर से आपका अभिनंदन करने के लिए हम पं. वंशीधर जी व्याकरणाचार्य के साथ उनके अभिनंदन के लिए मैनपुरी गये थे। उस समय वे वहाँ विद्यमान थे। सभा में उनकी सेवा में विद्वत् परिषद की ओर से अभिनंदन पत्र पढ़ा गया, अन्य विद्वानों ने भी उनके विषय में बहुत कुछ कहा। जब वे अन्त में अपना वक्तव्य देने लगे, तब उनका गला भर आया और कहने लगे कि समन्तभद्र स्वामी ने हम लोगों का जो उपकार किया है वह भुलाया नहीं जा सकता, मुझे लगता है कि मैं पूर्वभव में उनके संपर्क में रहा हूं। एक बार पूज्य गणेशप्रसाद जी वर्णी ईसरी में विद्यमान थे, प्रसंगवश मैं भी उस समय वहां उपस्थित था। वर्णी जी ने आग्रह किया-सोनगढ़ के निश्चय नय प्रधान प्रवचनों को लक्ष्यकर मुख्तार जी से कहा कि आप तो विद्वान है इस द्वन्द्व को सुलझाइये, उन्होंने अपने वक्तव्य में कहा जिनागम में निश्चय और व्यवहार द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक इन दो नयों के माध्यम से व्याख्यान किया जाता है। अमृतचन्द्र स्वामी का उन्होंने श्लोक सुनाया: व्यवहार निश्चयो यः प्रबुद्ध तत्वेन भवति मध्यस्थः। प्राप्नोति देशनायाः स एव फलम् विकलम् शिष्यः । समयसार में कुन्द्र-कुन्द स्वामी ने जहाँ निश्चयनय की प्रधानता से कथन किया है, वहां उसके अनन्तर व्यवहार नय यह कहता है, यह भी कहा
SR No.010670
Book TitleJugalkishor Mukhtar Vyaktitva evam Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalchandra Jain, Rushabhchand Jain, Shobhalal Jain
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year2003
Total Pages374
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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