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________________ 13 - पं जुगलकिशोर मुखार "युगवीर" व्यक्तित्व एवं कृतित्व सरसावा स्थित वीर सेवा मंदिर में अनेकों विद्वान् आये और गये। कोई छह माह रहा, कोई साल डेढ़ साल रहा लेकिन स्थायी रूप से रहने वाले दो ही विद्वान् थे पहले कोठिया जी और दूसरे पं. परमानंद जी। इन दोनों महामनीषियों ने वीर सेवा मंदिर को ख्याति तथा 'अनेकांत' पत्रिका के विकास और उसकी महनीयता में अभूतपूर्व योगदान दिया है। पं परमानन्द जी तो वी से मं. परिसर में ही रहते थे, उनके पास वाले कमरे में मैं रहता था। पर कोठिया जी गांव के भीतर मंदिरजी के पास वाले मकान में रहते थे, इन दोनों विद्वानों ने इतनी निष्ठा, तत्परता और लगन से जिनवाणी की सेवा की और साहित्यिक शोध के ऐसे ऐसे कीर्तिमान तथा मानदण्ड प्रस्तुत किए कि जैने विद्वान् ही नहीं, अपितु जैनेतर विद्वन्मंडली यहाँ आकर ठहरती और शोध कार्य की समीक्षा करती। मेरे समय में वीर शासन जयंती, जिसके प्रवर्तक स्वयं मुख्तार सा. थे, का आयोजन हुआ था, उसमें बहुत से विद्वानों के साथ-साथ श्रेष्ठीवर्ग दिल्ली, सहारनपुर, पानीपत आदि स्थानों से पधारे थे। इनमें पानीपत के बा. जय भगवान वकील प रुपचंद गार्गीय आदि की स्मृति अवशिष्ट हैं, इनसे बाद में जब मैं दिल्ली में स्थायी रुप से बस गया तो संपर्क बना रहा। बा. जयभगवान वकील तो वी.से मं. और 'अनेकान्त' के अनन्य भक्त थे। एक विद्वान् के पुनर्स्थापन में किए गए मेरे प्रयासों के जयभगवान जी बड़े प्रशंसक थे। उन दिनों स्वामी कर्मानन्द जी का जैन समाज में बड़ा आदर और सम्मान हो रहा था, वे भी उस समय वहां पधारे थे, स्वामी जी कट्टर आर्य समाजी थे और जैन धर्म का विरोध करते थे पर दि. जैन शास्त्रार्थ संघ, जो अम्बाला में जन्मा था और फिर मथुरा में आ गया है। उस समय उसकी समाज में बड़ी साख थी और संघ के कार्यों में समाज में जागृति आई थी, सामाजिक सुधार हुए थे, पर अब वह संस्था चौपट हो गई हैं, चूंकि मैं चौरासी में पांच वर्ष 1946 से 51 तक रहा है और संघ का उत्कर्ष काल देखा है। वहां के सुसम्पन्न पुस्तकालय को देखा है पर अभी ज्ञानसागर जी महाराज के वर्षाकाल में चौरासी गया और संघ की जो दुर्दशा देखी, उससे आंखों में आंसू आ गये, अस्तु । कर्मानंद की बात चल रही थी स्वामी जी आर्य समाज के विख्यात
SR No.010670
Book TitleJugalkishor Mukhtar Vyaktitva evam Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalchandra Jain, Rushabhchand Jain, Shobhalal Jain
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year2003
Total Pages374
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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