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________________ 300 Pandit Jugal Kishor Mukhtar "Yugveer" Personality and Achievements जैनधर्म में ऐसी परिणत हो गयी थीं, जैसी कि पंडिता चंदाबाई जी आरा। कोई भी अतिथि घर आया, उन्होंने उसे सादर भोज किये बिना नहीं जाने दिया । शरीर पर झुर्रियाँ पड जाने पर भी उनके सिर का एक भी बाल सफेद नहीं हुआ था । ४५ वें वर्ष मे आप विधवा हुई। छः वर्ष बाद इकलौता पुत्र प्रभुदयाल भी चल बसा। पुत्री गुणमाला को भी वैधव्य प्राप्त हुआ । पुत्रवधू भी अपनी पुत्री जयन्ती को छोड़ चल बसी थी। इतनी विपदाओं के होने पर भी दादी ने कर्त्तव्य से मुख नहीं मोड़ा। पुत्री गुणमाला और पोती जयन्ती को आरा में पढाया । जयन्ती का त्रिलोकचन्द्र बी ए के साथ विवाह भी किया। दादी ने अपना सब कुछ त्रिलोकचद को सौंपकर धर्मध्यान करने का विचार किया कि छह वर्ष बाद त्रिलोकचंद का अचानक स्वर्गवास हो गया। दादी निराश फिर भी न हुई । सकटो में रहकर भी उन्होने धैर्य नहीं छोडा। मुख्तार जी का उन्होंने माता के समान सदा ध्यान रखा। आयु के अन्त में ७ जून १९४५ को ११ बजे दिन मे समाधिपूर्वक उन्होंने नश्वर शरीर त्याग कर स्वर्ग सिधार गईं। मुख्तार जी ने लिखा है- दादी जी जैन समाज की एक धर्मपरायणा वीरागना थीं। कष्टों को धैर्य के साथ सहन करती हुई कर्त्तव्यपालन में निपुण थीं। उनका हृदय उदार था । अतिथि-‍ - सत्कार सराहनीय था । अपना दुःख वे व्यक्त नहीं करती थीं। शाति पूर्वक सहती थीं। आशा, तृष्णा और मोह पर आपको विजय प्राप्त थी। वे निस्पृह हो गयी थीं। आपने मरण के पूर्व दान का सकल्प कर लिया था। आपने सब ओर से अपनी चित्तवृत्ति को हटा लिया था। देह त्याग के समय आपकी अवस्था ८६-८७ वर्ष की थी। नौवे निबन्ध का शीर्षक है "जैन जाति का सूर्य अस्त" । इस निबंध मे सहारनपुर के बाबू सूरजभान वकील को मुख्तार जी ने जैन जाति का सूर्य कहा है । वे अन्धकार से लड़ते रहे। उन्होंने सदा समाज-सुधार के बीज बोये । इसके लिए जैन हित उपदेशक मासिक पत्र भी वे निकालते रहे। जैन ग्रंथों के प्रकाशन का गुरुतर कार्य आपने जान हथेली पर रखकर किया था। ऋषभ ब्रह्मचर्याश्रम हस्तिनापुर की आपने सेवा की थी। सैकड़ों लेख लिखे। 77 वर्ष में 16 सितम्बर 1945 को उनकी इहलीला समाप्त हुई। समाज का कर्त्तव्य है कि उनका कोई अच्छा स्मारक खड़ा करें।
SR No.010670
Book TitleJugalkishor Mukhtar Vyaktitva evam Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalchandra Jain, Rushabhchand Jain, Shobhalal Jain
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year2003
Total Pages374
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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