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________________ - 222 Pandit Jugal Kishor Mukhtar Yugvoer" Personallty and Achievements ग्रन्थों में उसी रूप में नहीं मिलते, उनमें पाठान्तर मिलते हैं। कुछ ऐसे भी उद्धरण मिलते हैं, जिनका प्रकाशित ग्रन्थ में अस्तित्व ही नहीं है। अवतरित उद्धरणों में मुख्यतः वैदिक साहित्य, प्राचीन जैन आगम एवं आगमिक साहित्य, बौद्ध साहित्य तथा षड्दर्शनों से सम्बद्ध साहित्य के उद्धरण मिलते हैं। इसके साथ-साथ लौकिक, नीतिपरक तथा साहित्यिक प्राप्त-अप्राप्त ग्रन्थों से भी उद्धरण पाये जाते हैं। प्राचीन जैन साहित्य गीतार्थ आचार्यों द्वारा संरचित या संकलित हैं। इनके द्वारा अवतरित उद्धरण उस-उस समय में प्राप्त ग्रन्थों से लिए गये हैं, इसलिए इन सभी उद्धरणों की प्रामाणिकता स्वतः सिद्ध है। अत: इन सभी आचार्यो/लेखकों द्वारालिखित ग्रन्थों में प्राप्त उद्धरणों के आधार पर वर्तमान में उपलब्ध ग्रन्थों से उनकी तुलना एवं समीक्षा की जाये तो उनमें आवश्यक संशोधन/परिवर्तन भी किया जा सकता है। ऐसे ग्रन्थ या ग्रन्थकर्ता,जिनके नाम से उद्धरण तो मिले हैं, परन्तु उस ग्रन्थ या ग्रन्थकार की जानकारी अभी तक अप्राप्त है, इस प्रकारके उधरणों का संकलन तथा प्रकाशन एवं उनका विशिष्ट अध्ययन महत्वपूर्ण निष्कर्ष दे सकेगा। इससे ग्रन्थ या ग्रन्थकरों का काल निर्णय करने में बहुत सहायता मिल सकती है, साथ ही लुप्त कड़ियों को प्रकाश में भी लाया जा सकता है। रत्नकरण्डक की टीका में कुल 23 अवतरण उद्धृत हैं। इनमें दो स्वयं प्रभाचन्द्र द्वारा रचित हैं। इन सबका अकारादि क्रम से संक्षिप्त विवेचन इस प्रकार है - "अधुवाशरणे चैव भव एकत्वमेव च। अनयत्वमशुचित्वं च तथैवासवसंवरौ।" - रत्नक. श्रा. 4/18 टीका यह पद्य पद्मनन्दि-उपासकाचार का 43 वां पद्य है। यह उपासकाचार पद्मनन्दि पंचविंशति में संग्रहीत है। इसके कर्ता श्री पद्मनन्दि आचार्य (वि. सं. 12 वीं शती का उत्तरार्थ) पं. आशाधर से पहले के हैं।
SR No.010670
Book TitleJugalkishor Mukhtar Vyaktitva evam Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalchandra Jain, Rushabhchand Jain, Shobhalal Jain
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year2003
Total Pages374
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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