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________________ 51 ing 4. कुगलकिशोर मुख्तार "पुगवीर" व्यक्तित्व एवं कृतित्व घर में तुलसीदास की रामायण सहज रूप से उपलब्ध रहती है और जिस तरह रामायण की चौपाइयाँ जन-जन में लोकप्रिय हैं, उसी प्रकार प्रत्येक जैन के घर में "मेरी भावना" की प्रति अवश्य मिलेगी, आबाल-वृद्ध, पुरुषमहिला सभी को मेरी भावना कंठाग्र होगी। जैन गीतों, भजनों, स्तोत्रों, स्तवन, जिनवाणी संग्रह आदि समस्त प्रकाशनों में, श्री मुख्तार जी की मेरी भावना को स्थान निरपवाद रूप से मिलता है। संभवत: कदाचित ही ऐसा कोई आधुनिक जैन लेखक हो जिसकी कोई विशेष रचना अभी तक प्रकाशित सभी जिनवाणी संग्रहों, पूजा-पाठ संग्रहों, विनती संग्रहों, स्तोत्र-स्तवन संग्रहों आदि में निरपवाद रूप से सम्मिलित की गयी हो। इस दृष्टि से मुख्तार साहब निर्विवाद रूप से बुधजन, धानतराय प्रभृति कवियों की श्रेणी में स्थान पाते हैं। ___"मेरी भावना" प्रार्थना में सद्भावना विशुद्ध मानवीय धरातल पर संप्रदाय निरपेक्ष, हृदय स्पर्शी, अंतरंग के तार झंकृतकर सवृत्ति की ओर उन्मुख करने वाली एक ऐसी प्रेरणास्पद अनुपम अद्वितीय काव्यकृति है, जो प्रत्येक बालक या श्रोता को विश्वमैत्री, सत्संगति, सदाचरण, अचौर्यत्व, सत्यवादिता, संतोषामृतपान, निरभिमानिता, परोपकारता, कारुण्य-भाव, दुर्जनों के प्रति माध्यस्थ भाव, समता, कृतज्ञता, गुणग्राहिता निर्लोभता, न्यायवादिता, निर्भीकता, सर्वोदय, सर्वे सुखिनः भवंतु, सर्वत्र मांगल्यभाव, शांति, समता, प्रजावात्सल्य, अहिंसा आदि सद्गुणों की ओर प्रेरित करती है। कवि की भावना के अनुरूप यदि जगत के सभी जीव उक्त सद्गुणों के ग्राहक बन आचरणोन्मुख हो जाये तो संसार की सभी समस्याएं समाप्त हो जाये। वस्तुतः समाज में निर्धनता या प्रचुरता, दुर्बलता या शक्ति सम्पन्नता, नीच या ऊंच आदि की समस्या उतनी नहीं है जितनी अज्ञानतावश बुराइयों की ओर प्रवृत्त होने की है। समाज की सभी बुराइयाँ और समस्याएं हमारे राग-द्वेष और सद्असद् भावों से संचालित हैं और कवि ने बुराइयों के मूल स्रोत भावों को हो परिशुद्ध करने का प्रयास किया है और विशेषता यह है कि किसी भी विशेष धर्म, धर्मगुरू, धर्मग्रन्थों का नाम लिए बिना कवि ने रामायण, महाभारत, गीता, बाइबिल, कुरान, गुरु ग्रन्थ साहिब और जैन आर्ष ग्रन्थों का सार इस छोटी सी रचना में "गागर में सागर" के समान भर दिया है। रागद्वेष कामादिक
SR No.010670
Book TitleJugalkishor Mukhtar Vyaktitva evam Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalchandra Jain, Rushabhchand Jain, Shobhalal Jain
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year2003
Total Pages374
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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