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________________ प्रकाशककी अोरसे जिस ग्रन्थरत्नके भाष्यकी वर्षोंसे तय्यारी और उसे पूर्णरूपमें प्रकाशित देखनेकी उत्कण्ठा तथा प्रतीक्षा थी उसे आज पाठकोंके हाथ में देते हुए बड़ी प्रसन्नता होती है। ग्रन्थका प्रस्तुत भाष्य कितने परिश्रमसे और कितनी विघ्न-बाधाओंको पार कर तय्यार हुआ है इसका सच्चा रोचक इतिहास 'भाष्यके निर्माणकी कथा' से जाना जा सकता है। और वह कितना उपयोगी तथा मूलके अनुकूल बना है, यह तो भाष्यके स्वयं अध्ययनसे ही सम्बन्ध रखता है । हर एक सहृदय पाठक उसे पढ़ते ही जान सकता है। पूज्य क्षुल्लक श्रीगणेशप्रसादजीवीके शब्दोंमें ऐसे पदानुसारी भाष्यकी विद्वानों तथा समाजके लिये अतीव आवश्यकता थी और वे उस 'रत्नोंको सुवर्णमें जड़कर उन्हें सुसज्जित और विभूषित करने जैसा कार्य' बतला रहे हैं। जहाँ तक मैं समझता हूँ भाष्यको मूलकी सीमाके भीतर रखनेकी पूरी चेष्टा की गई है. कहीं भी शब्द छलको लेकर व्यर्थका तूल नहीं दिया गया-और पद-वाक्योंकी गहराई में स्थित अर्थको ऊपर लाकर अँचे तुले शब्दोंमें व्यक्त करनेका पूर्ण प्रयत्न किया गया है। इससे यह भाष्य मूलकारकी दृष्टि एवं ग्रन्थके ममको समझने में बहुत बड़ा सहायक है। अतः सब विद्यालयों तथा शिक्षा-संस्थाओंके पठन-क्रम में इस भाष्यके रक्खे जाने और परीक्षालयादिके द्वारा प्रचार में लानेकी खास जरूरत है,जिससे मूलग्रन्थ प्रायः तोतारटन्त न रहकर ग्रन्थकारमहोदयके उद्देश्यको पूरा करने में समर्थ हो सके। ___ इस ग्रन्थपर श्रीमान् डा. वासुदेवशरण जी अग्रवाल प्रोफेसर हिन्दू विश्वविद्यालय बनारस ने 'प्राकथन' और डा० ए. एन. उपाध्ये एम. ए. प्रोफेसर राजाराम कॉलिज कोल्हापुरने Preface लिखने को जो कृा की है उसके लिये वीरसेवामन्दिर दोनोंका हृदयसे आभारी है। परमानन्द जैन
SR No.010668
Book TitleSamichin Dharmshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1955
Total Pages337
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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