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________________ प्रस्तावना प्रायः भूलसे भरा हुआ जान पड़ता है । बादको मेरे दर्याप्त करने पर. बालकीवालजीने. अपने १८ जून सन् १९२३ के पत्र में, इस भूलको म्वीकार भी किया है, जिसे मैं उन्हींके शब्दों में नीचे प्रकट करना हूँ। ___ "रत्नकरण्डके प्रथम संस्करण में जिन पद्योंको मैंने क्षेपक टहर था उसमें कोई प्रमाण नहीं, उस वक्तकी अपनी तुच्छ बुद्धिग ही ऐसा अनुमान हो गया था। संस्कृतटीकामें सवकी यनियुक्त टीका देखनेसे मेरा मन अब नहीं है कि वे क्षेपक हैं। वह प्रथम ही प्रथम मेरा काम था संस्कृत-टीका देखनेमें आई नहीं थी इसीलिय विचारार्थ प्रश्नात्मक ( ? ) नोट कर दिये गये थे । म मेरी भूल थी।" __यद्यपि यह वाकलीवालजीकी उस वक्तकी भूल थी परंतु इसने कितने ही लोगोंको भूलके चक्कर में डाला है,जिसका एक उदाहरण पं० नाना रामचंद्रजी नाग है । आपने बाकलीवालजीको उक्त कृति परसे उन्हीं २१ पद्यों पर क्षेपक होनेका संदेह किया हो सो नहीं. बल्कि उनमेस पंद्रह X पदोंको बिलकुल ही ग्रंथसे बाहरको चीज ममझ लिया। साथ ही तेरह पद्योंको और भी उन्हीं-जैसे मानकर उन्हें उमी कोटि में शामिल कर दिया और इस तरह पर इक्कीमकी जगह अट्ठाईम पद्योंको 'क्षेपक' करार देकर उन्हें 'उपा ५ उक्त २१ पद्यों में से निम्न नामके छह पद्योंको छोड़कर जो शेष रहते हैं उनको मद्यमास, यदनिट, नि:श्रेयम, जन्मजरा, विद्यादर्शन, काले कम । -उन रह पद्याकी नाममुची इस प्रकार है-- प्रोजस्तेजो, अरगुण, ननिधि, अमरासुर, शिवमजर, रागडेय, मकर मार, नाना पापाना. गृहहारि, संवत्सर, सामयिकं, गृहकमंगणा, उचंग ।।
SR No.010668
Book TitleSamichin Dharmshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1955
Total Pages337
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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