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________________ २४ समीचीन-धर्मशास्त्र पर वेदनीयकर्म अपना दुःखोत्पादनादि कार्य करनेमें उसी प्रकार असमर्थ होता है जिस प्रकार कि मिट्टी और पानी आदिके बिना बीज अपना अंकुरोत्पादन कार्य करने में असमर्थ होता है। मोहादिकके अभावमें वेदनीयकी स्थिति जीवित-शरीर-जैसी न रहकर मृत-शरीर-जैसी हो जाती है, उसमें प्राण नहीं रहता अथवा जली रस्सीके समान अपना कार्य करनेकी शक्ति नहीं रहती। इस विषयके समर्थन में कितने ही शास्त्रीय प्रमाण आप्तस्वरूप, सर्वार्थसिद्धि, तत्त्वार्थवार्तिक, श्लोकवार्तिक, आदिपुराण और जयधवला-जैसे ग्रन्थोंपरसे पण्डित दरबारीलालजीके लेखोंमें उद्धत किये गये हैं जिन्हें यहाँ फिरमें उपस्थित करनेकी जरूरत मालूम नहीं होती। ऐसी स्थितिम क्षुत्पिपासा-जने दोषोंको सर्वथा वदनीय-जन्य नहीं कहा जा सकता-वंदनीयकर्म उन्हें उत्पन्न करने में सर्वथा स्वतन्त्र नहीं है । और कोई भी कार्य किसी एक ही कारणसे उत्पन्न नहीं हुआ करता, उपादान कारण के साथ अनेक सहकारी कारणोंकी भी उसके लिये जरूरत हुआ करती है, उन सबका संयोग यदि नहीं मिलता तो कार्य भी नहीं हुआ करता । और इसलिये केवलीमें सुधादिका अभाव मानने पर कोई भी सैद्धान्तिक कठिनाई उत्पन्न नहीं होती। वेदनीयका सत्व और उदय वर्तमान रहते हुए भी, आत्मामें अनन्तज्ञानसुख-वीर्यादिका सम्बन्ध स्थापित होनेसे वेदनीय कर्मका पुद्गलपरमाणुपुञ्ज क्षुधादि-दोषोंको उत्पन्न करने में उसी तरह असमर्थ होता है जिस तरह कि कोई विषद्रव्य, जिसकी मारण शक्तिको मन्त्र तथा औषधादिके बल पर प्रक्षीण कर दिया गया हो, मारनेका कार्य करने में असमर्थ होता है । निःसत्व हुए विषद्रव्य के परमाणुओंको जिस प्रकार विषद्रव्यके ही परमाणु कहा * अनेकान्त वर्ष ८ किरण ४-५ पृ० १५६-१६१
SR No.010668
Book TitleSamichin Dharmshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1955
Total Pages337
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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