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________________ 164 समीचीन-धर्मशास्त्र [अ०७ 'उत्कृष्ट श्रावक' कहना अधिक उचित और उपयुक्त समझते थे। श्रावकका यह पद जो पहलेसे एक रूपमें था समन्तभद्रसे बहुत समय बाद दो भागोंमें विभक्त हुआ पाया जाता है, जिनमेंसे एकको आजकल 'क्षुल्लक' और दूसरे को गलक' कहते हैं / एलकपदकी कल्पना बहुत पीछे की है। श्रेयोज्ञाताकी पहिचान पापमरातिधर्मो बन्धु वस्य चेति निश्चिन्वन् / समयं यदि जानीते श्रेयोज्ञाता ध्रुवां भवति / / 13 // 148 // 'जीवका शत्रु पाप-मिथ्यादर्शनादिक-और बन्धु (मित्र) धर्म -सम्यग्दर्शनादिक-है, यह निश्चय करता हुआ जो समयकोप्रागम-शास्त्रको---जानता है वह निश्चयसे श्रेष्ठ ज्ञाता अथवा अय-- कल्याण-का ज्ञाता होता है-आत्महितको ठीक पहचानता है।' व्याख्या-यहाँ ग्रन्थका उपसंहार करते हुए उत्तम ज्ञाता अथवा आत्महितका ज्ञाता उसीको बतलाया है जिसका शास्त्रज्ञान इस निश्चयमें परिणत होता है कि मिथ्यादर्शनादिरूप पापकर्म ही इस जीवका शत्रु और सम्यग्दर्शनादिरूप धर्मकर्म ही इस जीवका मित्र है। फलतः जिसका शास्त्र अध्ययन इस निश्चयमें परिणत नहीं होता वह 'श्रेयोज्ञाता' पदके योग्य नहीं है / और इस तरह प्रस्तुत धर्मग्रन्थ के अध्ययनकी दृष्टिको स्पष्ट किया गया है / धर्मके फलका उपसंहार येन स्वयं वीत-कलंक-विद्या-दृष्टि-क्रिया-रत्नकरण्ड-भावम् / नीतस्तमायाति पतीच्छयेव सर्वार्थसिद्धिस्त्रिषु विष्टपेषु // 146 + देखो, 'ऐलक-पद-कल्पना' नामका वह विस्तृत निबन्ध जो अनेकान्त वर्ष 10 वें की संयुक्त किरण 11-12 में प्रकाशित हुया है और जिसमें इस 11 वी प्रतिमाका बहुत कुछ इतिहास आगया है / __ + 'सा' इति पाठान्तरम् /
SR No.010668
Book TitleSamichin Dharmshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1955
Total Pages337
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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