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________________ १३६ समीचीन-धर्मशास्त्र [अ०५ व्याख्या—यहाँ जिस समयकी बात कही गई है उसका सूचनात्मक स्वरूप अगली कारिकामें दिया है । उस समय अथवा आचारविशेषकी अवधि-पर्यन्त हिंसादिक पाँच पापोंका पूर्णरूपसे त्याग इस व्रतके लिये विवक्षित है और उसमें पापोंके स्थूल तथा सूक्ष्म दोनों प्रकार आजाते हैं । यह त्याग क्षेत्रकी दृष्टिसे देशावकाशिक ब्रतकी सीमाके भीतर और बाहर सारे ही क्षेत्रसे सम्बन्ध रखता है। समय-स्वरूप मूर्ध्वरुह-मुष्टि-वासो-बन्धं पर्यङ्कबन्धनं चाऽपि । स्थानमुपवेशनं वा समयं जानन्ति समयज्ञाः ॥ ८॥९॥ ‘केशबन्धन, मुष्टिबन्धन, वस्त्रबन्धन पर्यङ्कबन्धन-पद्मासनादि माँडना-और स्थान-खड़े होकर कायोत्सर्ग करना तथा उपवेशन-बैठकर कायोत्सर्ग करना या साधारगा रूपसे बैठना-इनको आगमके ज्ञाता अथवा सामायिक सिद्धान्तके जानकार पुरुष (सामायिकका) समय-ग्राचार-जानते हैं। अर्थात् यह सामायिक व्रतके अनुष्ठानका बाह्याचार है।' __ व्याख्या-'समय' शब्द शपथ, आचार, सिद्धान्त, काल, नियम, अवसर आदि अनेक अर्थों में प्रयुक्त हुआ है * । यहाँ वह 'आचार' जैसे अर्थमें प्रयुक्त हुआ है। इस कारिकामें जिन आचारोंका उल्लेख है उनमेंसे किसी प्रकारके आचारका अथवा 'वा' शब्दसे उनसे मिलते जुलते किसी दूसरे प्राचारका नियम लेकर जब तक उसे स्वेच्छासे या नियमानुसार छोड़ा नहीं जावे तब तकके समय (काल) के लिये पंच पापोंका जो पूर्णरूपसे* 'समयः शपथे भाषासम्पदो: कालसंविदोः । सिद्धान्ताऽऽचार-संकेत-नियमावसरेषु च ॥ क्रियाधिकारे निर्देशे च ।'-इति रभसः ।
SR No.010668
Book TitleSamichin Dharmshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1955
Total Pages337
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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