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________________ १३४ समीचीन-धर्मशास्त्र [अ०५. ___'मर्यादाके बाहर स्थूल तथा सूक्ष्म पंच पापोंका भले प्रकार त्याग होनेसे देशावकाशिकव्रतके द्वारा भी महाव्रत साधे जाते हैं।' व्याख्या-यहाँ महाव्रतोंकी जिस साधनाका उल्लेख है वह नियत समयके भीतर देशावकाशिक व्रतकी सीमाके बाहरके क्षेत्रसे सम्बन्ध रखती है । उस बाहरके क्षेत्रमें स्थितस भी जीवोंके साथ उतने समयके लिये हिंसादि पाँचों प्रकारके पापोंका मन वचन-काय और कृत-कारित-अनुमोदनाके रूपमें कोई सम्बन्ध न रखनेसे उस देशस्थ सभी प्राणियोंकी अपेक्षा अहिंसादि महाव्रतोंकी प्रसाधना बनती है । और इससे यह बात फलित होती है कि इस व्रतके व्रतीको अपनी व्रतमर्यादाके बाहर स्थित देशोंके साथ किसी प्रकारका सम्बन्ध ही न रखना चाहिए और यदि किसी कारणवश कोई सम्बन्ध रखना पड़े तो वहांके बस-स्थावर सभी जीवोंके साथ महाव्रती मुनिकी तरहसे आचरणा करना चाहिये । देशावकाशिक व्रतके अतिचार प्रेषण-शब्दाऽऽनयनं रूपाऽभिव्यक्ति-पुद्गलक्षेपौ । देशावकाशिकस्य व्यपदिश्यन्तेऽत्ययाः पंच ॥ ६ ॥६६॥ ___ . ( देशावकाशिकव्रतमें स्वीकृत देश तथा कालकी मर्यादाके बाहर स्वयं न जाकर) प्रेषणकार्य करना–व्यापारादिके लिए किसी व्यक्ति, वस्तु, पत्र या संदेशको वहाँ भेजना--, आनयन कार्य करना-सीमाबाह्य देशसे किसी व्यक्तिको बुलाना या कोई चीज अथवा पत्रादिक मंगाना, ( बाह्य देशमें स्थित प्राणियोंको अपने किसी प्रयोजनकी सिद्धि के लिए ) शब्द सुनाना-उच्चस्वरसे बोलना, टेलीफोन या तारसे बातचीत करना अथवा लाउडस्पीकर ( ध्वनि-प्रचारक यन्त्र ) का प्रयोग करना, अपना रूप दिखाना, तथा पुद्गल द्रव्यके क्षेपण ( पातनादि )द्वारा कोई प्रकारका संकेत करना; ये देशावकाशिकबतके पाँच अतिचार कहे जाते हैं।'
SR No.010668
Book TitleSamichin Dharmshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1955
Total Pages337
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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