SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 275
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १२० समीचीन-धर्मशास्त्र [अ०४. द्वेष, राग, मद और मदन ( रति-काम) के प्रतिपादनादि-द्वारा चित्तको कलुषित-मलिन करनेवाले-क्रोध-मान-माया-लोभादिसे अभिभूत अथवा अाक्रान्त बनानेवाले-शास्त्रोंका सुनना 'दुःश्रुति' नामका अनर्थदण्ड है।' व्याख्या-जो शास्त्र व्यर्थके आरम्भ-परिग्रहादिके प्रोत्तेजनद्वारा चित्तको कलुषित करनेवाले हैं उनका सुनना-पढ़ना निरर्थक है; क्योंकि चित्तका कलुषित होना प्रकट रूपमें कोई हिंसादि कार्य न करते हुए भी स्वयं पाप-बन्धका कारण है। इसीसे ऐसे शास्त्रोंके सुननेको, जिसमें पढ़ना भी शामिल है, अनर्थदण्डमें परिगणित किया गया है । और इसलिये अनर्थदण्डव्रतके व्रतीको ऐसे शास्त्रोंके व्यर्थ श्रवणादिकसे दूर रहना चाहिये । हाँ, गुणदोषका परीक्षक कोई समर्थ पुरुष ऐसे ग्रन्थोंको उनका यथार्थ परिचय तथा हृदय मालूम करने और दूसरोंको उनके विषयकी समुचित चेतावनी देनेके लिये यदि सुनता या पढ़ता है तो वह इस व्रतका व्रती होनेपर भी दोषका भागी नहीं होता। वह अपने चित्तको कलुषित न होने देनेकी भी क्षमता रखता है। प्रमादचर्या-लक्षण क्षिति-सलिल-दहन-पवनारम्भं विफलं वनस्पतिच्छेदं । सरणं सारणमपि च प्रमादचर्या प्रभाषन्ते ॥१४॥८॥ ___ 'पृथ्वी, जल, अग्नि तथा पवनके (व्यर्थ) आरम्भको-बिना ही प्रयोजय पृथ्वीके खोदने-कुरेदनेको, जलके उछालने-छिड़कने तथा पीटनेपटकनेको, अग्निके जलाने-बुझानेको, पवनके पंखे आदिसे उत्पन्न करने ताड़ने-रोकनेको व्यर्थके वनस्पतिच्छेदको, और व्यर्थके पर्यटनपर्याटनको-बिना प्रयोजन स्वयं घूमने-फिरने तथा दूसरोंके घुमानेफिरानेको–'प्रमादचर्या' नामका अनर्थदण्ड कहते हैं।'
SR No.010668
Book TitleSamichin Dharmshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1955
Total Pages337
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy