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________________ कारिका ५८-५६] ब्रह्मचर्याऽणुव्रत-लक्षण ६६ है कि 'विरुद्ध ( प्रतिपक्षी) राज्यमें उचित न्यायसे अन्य प्रकार दानका ग्रहण 'विरुद्धराज्यातिक्रम' कहलाता है और उसका आशय है 'अल्पमूल्यमें मिले हुए द्रव्योंको वहाँ बहुमूल्य बनाने का प्रयत्न' * | इससे अपने राज्यकी जनता उन द्रव्योंके उचित उपयोगसे वंचित रह जाती है और इसलिये यह एक प्रकारका चारहरण है । विलोपमें दूसरे प्रकारका अपहरण भी शामिल है जो किसीकी सम्पत्तिको नष्ट करके प्रस्तुत किया जाता है । टीकाकार प्रभाचन्द्रने चिलोपकी व्याख्या विरुद्धराज्यातिक्रमके रूपमें दी है और साथमें विरुद्धराज्यातिक्रमका स्पष्ट नामोल्लेख भी कर दिया है, जब कि विलोप विरुद्ध-राज्यातिक्रमका कोई पर्याय नाम नहीं है। ब्रह्मचर्याऽरणुव्रत-लक्षण न तु+ परदारान् गच्छति न परान् गमयति पापभीतेर्यत । सा परदारनिवृत्तिः स्वदारसंतोषनामाऽपि ॥१३॥५६॥ ____ पापके भयसे ( न कि राजादिके भयसे ) पर-स्त्रियोंको स्वदार भिन्न अन्य स्त्रियोंको-जो स्वयं सेवन न करना और न दूसरोंको सेवन कराना है वह 'परदारनिवृत्ति' व्रत है, 'स्वदारसंतोष' भी उसीका नामान्तर है-दूसरे शब्दोंमें उसे स्थूल मैथुनसे विरति स्थूलकामविरति तथा ब्रह्मचर्यारगुव्रत भी कहते हैं। व्याख्या--यहाँ इस व्रतके दो नाम दिये गये हैं-एक 'परदारनिवृत्ति' दूसरा 'स्वदारसंतोप' जिनमेंसे एक निषेधपरक * उचितन्यायादन्येन प्रकारेण दानग्रहणमतिक्रमः । विमद्धं राज्यं विरुद्ध राज्य, विरुद्ध राज्येऽतिक्रमः विरुद्धराज्यातिकम: । तत्र ह्यल्पमूल्यलभ्यानि महाागि द्रव्यारणीति प्रयत्नः। सर्वार्थसिद्धिः + 'च' इति पठान्तरम् ।
SR No.010668
Book TitleSamichin Dharmshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1955
Total Pages337
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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