SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 251
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६६ समीचीन-धर्मशास्त्र [अ०३ इसमें मन्त्रभेद और पैशून्यको दो अलग अलग अतिचारोंके रूपमें उल्लेखित किया है, जिससे यह साफ जाना जाता है कि दोनों एक नहीं हैं। ऐसी ही स्थिति परि (री) वादकी मिथ्योपदेशके साथ समझनी चाहिये। पं० आशाधरजीने, जिन्होंने परिवाद और पैशून्यको छोड़कर मिथ्योपदेश तथा मन्त्रभेदको अतिचार रूपमें ग्रहण किया है, अपने सागारधर्मामृतम इस श्लोकको उद्धृत करते हुए इसे 'अतिचारान्तरवचन' सूचित किया है, इससे भी परिवाद और पैशून्य नामके अतिचार मिथ्योपदेशादिसे भिन्न जाने जाते हैं और वे आचार्य समन्तभद्रक शासनसे सम्बन्ध रखते हैं । शेप नीन अतिचार दोनों ग्रन्थोंमें समान हैं। ___अचौर्यारणुव्रत-लक्षण निहितं वा पतितं वा मुविस्मृतं वा परस्वमविसृष्टम् । न हरति यन्न च दत्ते तदकृश-चौर्यादुपारमणम् ॥११॥५७॥ 'बिना दिये हुए पर-द्रव्यको, चाहे वह धरा-ढका हो, पड़ागिरा हो अथवा अन्य किसी अवस्थाको प्राप्त हो, जो (संकल्पपूर्वक अथवा स्वेच्छासे) स्वयं न हरना (अनीतिपूर्वक ग्रहण न करना) और न (अनधिकृतरूपसे) दूसरोंको देना है उसे स्थूल-चौर्यविरति--प्रचौर्यारणुव्रत-कहते हैं।' व्याख्या---यहाँ 'परवं' और उसका मुख्य विशेपण 'अविसष्टं' तथा 'हरति क्रियापद ये तीनों खास तौरसे ध्यान देने योग्य हैं। जिसका स्वामी अपनेसे भिन्न कोई दूसरा हो उस धन-धान्यादि पदार्थको 'परस्व' कहते हैं, पर-धन और पर-द्रव्य भी उसीके दूसरे नाम हैं । जो पदार्थ अपने तत्कालीन स्वामीके द्वारा अथवा उसकी इच्छा, आज्ञा या अनुमतिसे दिया गया न हो वह, 'अविसृष्ट' कहलाता है, 'अदत्त' भी उसीका नामान्तर है और उसमें
SR No.010668
Book TitleSamichin Dharmshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1955
Total Pages337
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy