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________________ समीचीन-धर्मशास्त्र [अ०३ ___ व्याख्या ----यहाँ 'संज्ञम्य' पदके द्वारा सम्यक चारित्रके स्वामीका निर्देश किया गया है और उसे सम्यग्ज्ञानी बतलाया गया है । इससे स्पष्ट है कि जो सम्यग्ज्ञानी नहीं उसके सम्यक्-चारित्र होता ही नहीं-मात्र चारित्र-विपयक कुछ क्रियाओंक कर लनेस ही मम्यकचारित्र नहीं बनता, उसके लिये पहले सम्यग्ज्ञानका होना अति आवश्यक है। हिंसाक लिये इसी ग्रन्थमें आगे 'प्रागातिपात' (प्राणव्यपरोपण, प्राणघात), 'वध' तथा 'हति' का; अनतके लिये 'वितथ' 'अलीक तथा मपाका एवं फलिताथक रूपमें असत्यका; चायके लिय स्तंय' का मैथुनमेवाके लिय 'काम' तथा 'स्मर' का एवं फलिताथरूपमें 'अब्रह्म' का; और परिग्रह के लिये 'संग', 'मूर्छा' (ममत्वपरिणाम) तथा 'इच्छा' का भी प्रयोग किया गया है। और इसलिये अपने अपने बगक इन शब्दोंको एकार्थक, पर्यायनाम अथवा एक दूसरेका नामान्तर समझना चाहिए। चारित्रके भेद और स्वामी सकलं विकलं चरणं तत्सकलं सर्वसंग-विरतानाम् । अनगाराणां, विकलं सागाराणां मसंगानाम् ॥४॥५०॥ __(पूर्वनिर्दिष्ट हिमादि-विति-लक्षण) चारित्र ‘सकल (परिपुग) और 'विकल' (अपूर्ण) रूप हाता है-महाव्रत-अरगुव्रतके भेदसे उसके दो भेद हैं । सर्वसंगसे----बाह्य तथा प्राभ्यन्तर दोनों प्रकारके परिग्रह मे-विरक्त गृहत्यागी मुनियाका जा चारित्र है वह सकलचारित्र # देखो, हिंसावर्गके लिये कारिका ५२, ५३, ५४, ७२, ७५ से ७८, ८४; अनृतवर्गके लिये कारिका ५२, ५५, ५६; चौर्यवर्गके लिये कारिका ५२, ५७; मैथुनसेवावर्गके लिये कारिका ५२, ६०, १४३; और परिग्रहवर्ग के लिये कारिका ५०, ६१ ।
SR No.010668
Book TitleSamichin Dharmshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1955
Total Pages337
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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