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________________ ६० समीचीन-धर्मशास्त्र [अ०१ होता है और जिस अर्थमें वह कुन्दकुन्दाचार्यके समयसार (गाथा नं०४०८ आदि) में तथा दूसरे अति प्राचीन साहित्यमें भी प्रयुक्त हुआ है। 'पाषण्डिनां' पदके जो दो विशेषण 'सग्रन्थारम्भहिंसानां' और 'संसारावर्तवर्तिनां' दिये गये हैं और इन विशेषणोंसे विशिष्ट होकर पापण्डी कहे जाने वाले व्यक्तियों-साधुओंके आदर-सत्कारको जो पापण्डि-मूढ (मोहन) कहा गया है उस सबके द्वारा यह व्यक्त किया गया है कि इन परिग्रहारम्भादिविशेषणोंसे विशिष्ट जो साधु होते हैं वे वस्तुतः 'पाखण्डी (पापखण्डनकी साधना करने वाले) नहीं होते-वे तो अपनी इन परिग्रहादिकी प्रवृत्तियों द्वारा उल्टा पापोंका संचय करनेवाले होते हैं-, सच्चे पापण्डी इन दोनों ही विशेपणांसे रहित होते हैं और वे प्रायः वे ही होते हैं जिन्हें इस ग्रन्थमें 'विषयाशावशतीतोनिरारम्भोऽपरिग्रहः' इत्यादि ‘परमार्थतपस्वी' के लक्षण-द्वारा संसूचित किया गया है। ऐसी हालतमें जो परिग्रहादिके पंकस लिप्त हैं वे पाषण्डी न होकर अपाषण्डी अथवा पापण्डाभास है और इसलिये उन्हें पापण्डी मानकर पाषण्डीके सदृश जो उनका आदर-सत्कार किया जाता है वह पापण्डिमूढ है-पापण्डीके स्वरूप-विषयक अज्ञताका सूचक, एक प्रकारका दशनमोह है । ऐसे दर्शन-मोहसे जो युक्त होता है वह सम्यग्दृष्टि नहीं हो सकता । यहाँ पर मैं इतना और भी प्रगट कर देना चाहता हूँ कि आजकल ‘पापण्डिन्' शब्द प्रायः धूर्त तथा दम्भी-कपटी जैसे विकृत अर्थमें व्यवहृत होता है और उसके अर्थकी यह विकृतावस्था दशों शताब्दी पहलेसे चली आरही है। यदि 'पापण्डिन शब्द के प्रयोगको यहाँ धूर्त, दम्भी, कपटी अथवा झूठे ( मिथ्यादष्टि) साधु जैसे अर्थमें लिया जायु जैसाकि कुछ अनुवादकोंने भ्रमवश आधुनिक दृष्टि से लेलिया है तो अर्थका अनर्थ हो जाय पाखण्डी-लिंगाणि व गिहलिंगारिग व बहुप्पयाराणि ।
SR No.010668
Book TitleSamichin Dharmshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1955
Total Pages337
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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