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________________ कारिका १६ ] स्थितीकरणाङ्ग- लक्षण ५३ सम्यक चारित्रमें (जैसी स्थिति हो ) अवस्थापन करना है - उनकी उस अस्थिरता, चलचित्तता, स्खलना एवं डांवाडोल स्थितिको दूर करके उन्हें पहले जैसी अथवा उससे भी सुदृढ स्थिति में लाना है-- वह 'स्थितीकरण' अंग कहा जाता है।' व्याख्या -- यहां जिनके प्रत्यवस्थापन अथवा स्थितीकरणकी बात कही गई हैं वे सम्यग्दर्शन या सम्यक वाचारित्र से चलायमान होनेवाले हैं। धर्मके मुख्य तीन अंगों में से दो से चलायमान होने वालोंका तो यहां प्रहण किया गया है किन्तु तीसरे अंग सम्यज्ञानसं चलायमान होनेवालोंको ग्रहण नहीं किया गया, यह क्यों ? इस प्रश्नका समाधान, जहां तक मैं समझता हूँ, इतना ही है कि सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान दोनोंका ऐसा जोड़ा है जो युगपत उत्पन्न होते हुए भी परस्पर में कारण कार्य भावको लिये रहते हैं -- सम्यग्दर्शन कारण है तो सम्यग्ज्ञान कार्य हैं, और इसलिये जो सम्यग्दर्शनसे चलायमान है वह सम्यग्ज्ञानसे भी चलायमान है और ऐसी कोई व्यक्ति नहीं होती जो सम्यग्दर्शनसे तो चलायमान न हो किन्तु सम्यग्ज्ञानसे चलायमान हो, इसीसे सम्यग्ज्ञानसे चलायमान होनेवालोकं पृथक् निर्देशकी यहाँ कोई ज़रूरत नहीं समझी गई । अथवा 'अपि' शब्द के द्वारा गौरारूपसे उनका भी ग्रहण समझ लेना चाहिये । इनके सिवाय, जिनको इस अंगका स्वामी बतलाया गया है उनके लिये दो विशेषणका प्रयोग किया गया है एक तो 'धर्मवत्सल' और दूसरा 'प्राज्ञ' । इन दोनों में से यदि कोई गुण न हो तो स्थितीकरणका कार्य नहीं बनता; क्योंकि धर्मवत्सलता के अभाव में तो किसी चलायमान के प्रत्यवस्थापनकी प्रेरणा ही नहीं होती और प्राज्ञता (दक्षता) के अभाव में प्रेरणाके होते हुए भी प्रत्यवस्थापनके कार्य में सफल प्रवृत्ति नहीं बनती अथवा या कहिये
SR No.010668
Book TitleSamichin Dharmshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1955
Total Pages337
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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