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________________ ४६ समीचीन धर्मशास्त्र [ ऋ० १ समीचीन - रीति से अथवा भले प्रकार नहीं किया जा सकता। इन गुणोंसे विहीन जो तपस्वी साधु कहलाते हैं वे पत्थरकी उस नौका के समान हैं जो आप डूबती है और साथ में आश्रितोंकोभी ले डूबती है । ध्यान यद्यपि अन्तरंग तपका ही एक भेद है, फिर भी उसे अलग से जो यहां ग्रहण किया गया है वह उसकी प्रधानताको बतलाने के लिये है । इसी तरह स्वाध्याय नामके अन्तरंग तप ज्ञानका समावेश हो जाता है, उसकी भी प्रधानताको बतलानेके लिये उसका अलग से निर्देश किया गया है। इन दोनोंकी अच्छी साधना के बिना कोई सत्साधु श्रमण या परमार्थतपस्वी बनता हो नहीं - सारी तपस्याका चरम लक्ष्य प्रशस्त ध्यान और ज्ञानकी साधना ही होता है । स्वामी समन्तभद्रने इस धर्मशास्त्र में धर्मके अंगभूत सम्यग्दर्शनका लक्षण प्रतिपादन करते हुए उसे 'अष्टांग' विशेषण के द्वारा आठ अंगोंवाला बतलाया है । वे आठ अंग कौनसे हैं और उनका क्या स्वरूप है इसका स्वयं स्पष्टीकरण करते हुए स्वामीजी लिखते हैं: अशंसयाऽङ्ग- लक्षण इदमेवेशं चैव तत्त्वं नान्यन्न चाऽन्यथा । इत्यकम्पाऽऽयसाम्भोवत्सन्मार्गेऽसंशया रुचिः ||११|| 'तत्त्व — यथावस्थित वस्तुस्वरूप - यही है और ऐसा ही है ( जो और जैसा कि दृष्ट तथा इष्टके विरोध-रहित परमागम में प्रतिपादित हुग्रा है), अन्य नहीं और न अन्य प्रकार है, इस प्रकारकी सन्मार्गमेंसम्यग्दर्शनादिरूप समीचीन धर्ममें- जो लोहविनिर्मित खड्गादिकी आब ( चमक) के समान अकम्पा रुचि है-प्रोत श्रद्धा है— उमे 'असंशया' – निःशंकित — अंग कहते हैं ।"
SR No.010668
Book TitleSamichin Dharmshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1955
Total Pages337
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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