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________________ कारिका २] धर्म-लक्षण રહી सकती है कि आगममें सम्यग्दर्शनादि ( रत्नत्रय ) को तीर्थकर, आहारक तथा देवायु आदि पुण्यप्रकृतियोंका जो बन्धक बतलाया है उसकी संगति फिर कैसे बैठेगी ? इसके उत्तरमें इतना ही जान लेना चाहिये कि वह सब कथन नयविवक्षाको लिये हुए है, सम्यग्दर्शनादिके साथमें जब रागपरिणतिरूप योग और कषाय लगे रहते हैं तो उनसे उक्त कर्मप्रकृतियोंका बन्ध होता है और संयोगावस्थामें दो वस्तुओंके दो अत्यन्त विरुद्धकार्य होते हुए भी व्यवहारमें एकके कायको दूसरेका कार्य कह दिया जाता है, जैसे घीने जला दिया जलानेका काम अग्निका है घीका नहीं, परन्तु दोनोंका संयोग होनेसे अग्निका कार्य घीके साथ रूढ होगया । इसी तरह रागपरिणतिरूप शुभोपयोगके साथमें जब सम्यग्दर्शनादि रत्नत्रय होते हैं तो उन्हें व्यवहारतः उक्त पुण्य प्रकृतियोंका बन्धक कहा जाता है, और इसलिये यह शुभोपयोगका ही अपराध हैशुद्धोपयोगकी दशामें ऐसा नहीं होता । अन्यथा, रत्नत्रयधर्म वास्तवमें मोक्ष (निर्वाण) का ही हेतु है, अन्य किसी कर्मप्रकृतिके बन्धका नहीं;जैसा कि आगम-रहस्यको लिये हुए श्री अमृतचन्द्राचार्यके निम्नवाक्योंसे प्रकट है है, जैसे धीर परिणाव अग्निका काका है घीका सम्यक्त्व-चरित्राभ्यां तीर्थकराहारकर्मणो बन्धः । योऽप्युपदिष्टः समये न नयविदां सोऽपि दोषाय ॥२१॥ सति सम्यक्त्वरित्रे तीर्थकराहारबन्धको भवतः । योग-कषायौ नाऽसति तत्पुनरस्मिन्नुदासीनम् ॥२१८॥ ननु कथमेवं सिद्धयतु देवायुःप्रभृतिसत्प्रकृतिबन्धः ।। सकलजनसुप्रसिद्धो रत्नत्रयधारिणां मुनिवराणाम् ॥२१॥ रत्नत्रयमिह हेतुर्निर्वाणस्यैव भवति नाऽन्यस्य । आस्रवति यत्तु .पुण्यं शुभोपयोगोऽयमपराधः ॥२२०॥
SR No.010668
Book TitleSamichin Dharmshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1955
Total Pages337
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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