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________________ २४ समीचीन-धर्मशात्र [अ० १ एकमात्र धर्म-देशना अथवा धर्म-शासनको लिये हुए होनेसे यह ग्रंथ 'धर्मशास्त्र' पदके योग्य है। और चंकि इसमें वर्णित धर्मका अन्तिम लक्ष्य संसारी जीवोंको अक्षय-सुखकी प्राप्ति कराना है, इसलिये प्रकारान्तरसे इसे 'सुख-शास्त्र' भी कह सकते हैं। शायद इसीलिये विक्रमकी ११वीं शताब्दीके विद्वान् आचार्य वादिराजसूरिने, अपने पार्श्वनाथचरितमें स्वामी समन्तभद्र योगीन्द्रका स्तवन करते हुए, उनके इस धर्मशास्त्रको "अक्षय्यसुखावहः" विशेषण देकर अक्षय-सुखका भण्डार बतलाया है * । कारिकामें दिये हुए 'देशयामि समीचीनं धर्म' इस प्रतिज्ञावाक्यपरसे ग्रन्थका असली अथवा मूल नाम 'समीचीन-धर्मशास्त्र' जान पड़ता है, जिसका आशय है "समीचीन धर्मकी देशना (शास्ति) को लिये हुए ग्रन्थ', और इस लिये यही मुख्य नाम इस सभाध्य ग्रन्थको देना यहाँ उचित समझा गया है, जो कि ग्रन्थकी प्रकृतिके भी सर्वथा अनुकूल है। दूसरा 'रत्नकरण्ड' (रत्नोंका पिटारा) नाम ग्रन्थमें निर्दिष्ट धर्मका रूप रत्नत्रय होनेसे उन रत्नोंके रक्षणोपायभूतके रूपमें है और ग्रन्थके अन्तकी एक कारिकामें 'येन स्वयं वीतकलङ्कविद्या-दृष्टि-क्रिया-रत्नकरण्डभावं नीतः' इस वाक्यके द्वारा उस रत्नत्रय धर्मके साथ अपने आत्माको 'रत्नकरण्ड' के भावमें परिणत करनेका जो वस्तु-निर्देशात्मक उपदेश दिया गया है उस परसे भी फलित होता है। दोनोंमें 'समीचीनधर्मशास्त्र' यह नाम प्रतिज्ञाके अधिक अनुरूप स्पष्ट और गौरवपूर्ण प्रतीत होता है । समन्तभद्र के और भी कई ग्रन्थोंके दो दो नाम हैं; जैसे देवागमका दूसरा नाम आप्तमीमांसा; स्तुति-विद्या का दूसरा नाम जिनस्तुतिशतक (जिनशतक) और स्वयम्भूस्तोत्र * त्यागी स एव योगीन्द्रो येनाऽक्षय्यसुखावहः । अथिने भव्य-सार्थाय दिण्टो रत्नकरण्डकः ॥१६॥
SR No.010668
Book TitleSamichin Dharmshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1955
Total Pages337
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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