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________________ कारिका २] देश्य-धर्मके विशेषण १६. उनकी पतितावस्थाको मिटाता हुआ उन्हें ऊँचे उठाता है और इसलिये 'पतितोद्धारक' कहा जाता है। कूपमें पड़े हुए प्रारणी जिस प्रकार रस्सेका सहारा पाकर ऊँचे उठ आते और अपना उद्धार कर लेते हैं उसी प्रकार संसारके दुःखोंमें डूबे हुए पतितसे पतित जीव भी धर्मका आश्रय एवं सहारा पाकर ऊँचे उठ आते हैं और दुःखांसे छूट जाते हैं X / स्वामी समन्तभद्र तो 'अतिहीन' (नीचातिनीच) को भी इसी लोक में 'अतिगुरु' (अत्युच्च ) तक होना बतलाते हैं । ऐसी स्थितिमें स्वरूपसे ही सब जीवोंका धर्म के ऊपर समान अधिकार है और धर्मका भी किसीके साथ कोई पक्षपात नहीं है - वह ग्रन्थकारके शब्दों में 'जीवमात्रका बन्धु' | है तथा स्वाश्रय प्राप्त सभी जीवोंके प्रति समभाव से वर्तता है। इसी दृष्टिको लक्ष्य रखते हुए प्रन्धकारमहोदयने स्वयं ही ग्रन्थमें आगे यह प्रतिपादन किया है कि धर्मके प्रसादसे कुत्ता भी ऊँचा उठकर ( अगले जन्ममें) देवता बन जाता है और ऊँचा उठा हुआ देवता भी पापको अपनाकर धर्मभ्रष्ट हो जानेसे ( जन्मान्तर में ) कुत्ता बन जाता है ! ।' साथ ही, यह भी बतलाया है कि धर्मसम्पन्न एक चाण्डालका पुत्र भी 'देव' है -आराध्य है, X " संसार एष कूपः सलिलानि विपत्ति - जन्म - दुःखानि । इह धर्म एव रज्जुस्तस्मादुद्धरति निर्मग्नान् ॥” ( पुरातन ) * यो लोके त्वा नतः सोऽतिहीनोऽप्यतिगुरुर्यत: । - स्तुतिविद्या ( जिनशतक ) ८२ + पापमरातिर्धर्मो बन्धुर्जीवस्य चेति निश्चिन्वन् । (१४८) + श्वाऽपि देवोऽपि देवः श्वा जायते धर्म-किल्विषात् । (२६) $ सम्यग्दर्शनसम्पन्नमपि मातङ्गदेहजम् । देवा देवं विदुर्भस्म - गूढाङ्गारान्तरौजसम् ।। (२८) 'देवं श्राराध्यं' - इति प्रभाचन्द्रः टीकायाम् ।
SR No.010668
Book TitleSamichin Dharmshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1955
Total Pages337
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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