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________________ समीचीन-धर्मशास्त्र [अ० १ जो बन्धनसे छुड़ाने वाला होता है वही दुखसे निकालकर सुखमें धारण करता है; क्योंकि बन्धनमें-पराधीनतामें-सुख नहीं किन्तु दुःख ही दुःख है। इसी विशेषणको प्रतिष्ठापर तीसरा विशेषण चरितार्थ होता है, और इसी लिए वह 'कर्मनिवर्हण' विशेषणके अनन्तर रक्खा गया जान पड़ता है। सुख जीवोंका सर्वोपरि ध्येय है और उसकी प्राप्ति धर्मसे होती है । धर्म सुखका साधन (कारण) है और साधन कभी साध्य ( काय ) का विरोधी नहीं होता, इसलिये धर्मसे वास्तवमै कभी दुःखकी प्राप्ति नहीं होती, वह तो सदा दुःखोंसे छुड़ानेवाला ही है । इसी बातको लेकर श्रीगुणभद्राचार्यन, अात्मानुशासनमें, निम्न वाक्यके द्वारा सुखका आश्वासन देते हुए उन लोगोंको धर्ममें प्रेरित किया है जो अपने सुखमें वाधा पहुँचनक भयको लेकर धर्मसे विमुख बने रहते हैं धर्मः सुखस्य हेतुहें तुर्न विरोधकः स्वकार्यस्य । तस्मात्सुखभङ्गभिया माभूधर्मस्य विमुखस्त्वम् ॥२०॥ धर्म करते हुए भी यदि कभी दुःख उपस्थित होता है तो उसका कारण पूर्वकृत कोई पापकमका उदय ही समझना चाहिये, न कि धर्म : 'धर्म' शब्दका व्युत्पत्यर्थ अथवा निरुक्त्यर्थ भी इसी बातको सूचित करता है और उस अर्थको लेकर ही तीसरे विशेपणकी घटना (सष्टि) की गई है । उसमें सुखका ‘उत्तम' विशेपण भी दिया गया है, जिससे प्रकट है कि धर्मसे उत्तम मुखकी-शिवसुखकी अथवा यों कहिये कि अबाधित सुखकी-- प्राप्ति तक होती है; तब साधारण मुख तो कोई चीज़ ही नहींतो धमसे सहज ही प्राप्त होजाते हैं । सांसारिक दुःखोंके छूटनेसे सांसारिक उत्तम मुखोंका प्राप्त होना उसका आनुषङ्गिक फल हैधर्म उसमें बाधक नहीं, और इस तरह प्रकारान्तरसे धर्म संसारके उत्तम मुखोंका भी साधक है, जिन्हें ग्रन्थमें 'अभ्युदय' शब्दके
SR No.010668
Book TitleSamichin Dharmshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1955
Total Pages337
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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