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________________ विषय-सूची १२१ 'रत्नत्रय'धर्म कर्मबन्धका कारण परमार्थ-आप्त-लक्षण ३७ क्यों नहीं ? और क्यों उसे प्राप्त-गुणोंके क्रम-निर्देशकी यतीर्थकर, आहारक तथा थार्थता और 'मोक्षमार्गस्य देवायु आदि-पुण्यप्रकृतियोंका नेतारं' पद्यके साथ तुलना ३७ बन्धक कहा गया है ? निर्दोष-आप्त-स्वरूप ३६ दोनोंका समाधान २८ अष्टादश दोष-विषयक दिगम्बररत्नत्रयधर्मके दो भेद, जिनमें श्वेताम्बर-मान्यताओंके अव्यवहाररत्नत्रय,निश्चयरत्न- न्तरका स्पष्टीकरण ३६ त्रय धर्मका सहायक होनेसे आप्त-नामावली ... ४० पुण्यका बन्धक होते हुए भी ये नाम प्राप्तके तीनों गुणोंकी 'मोक्षोपायके रूपमें निर्दिष्ट है दष्टि से हैं, ऐसी नाममाला न कि बन्धनोपायके रूपमें ३० देनेकी प्राचीन पद्धति ४१ धर्म तो वस्तुस्वभाव, दया, दश- वीतराग प्राप्त आगमेशी कैसे ? लक्षण आदि दूसरे भी हैं,तब इसका स्पष्टीकरण ४२ अकेले रत्नत्रयको ही यहां आगम-शास्त्र-लक्षण ४३ धर्म क्यों कहा ? समाधान ३१ लक्षण में 'प्राप्तोपज्ञ' विशेसम्यग्दर्शनका लक्षण ३२ । षग पर्याप्त होते हुए भी शेष श्रद्धान शब्दके पर्यायनामोंका पाँच विशेषण जो और साथ अनुसंधान, परमार्थ प्राप्त में जोड़े गए हैं वे आप्तोपज्ञआगम-तपस्वीके श्रद्धानका की जाँचके माधनरूपमें हैं ४३ अभिप्राय,परमार्थ विशेषरणसे लौकिक प्राप्तादिके पृथ परमार्थ-तपस्वि-लक्षण ४५ क्करणादिका दिग्दर्शन ३३ तपस्वीके चार विशेषणपदोंका। यह श्रद्धान सम्यग्दर्शनका का महत्व-ख्यापन ... ४५ रण है, कारणमें कार्यका असंशयाङ्ग-लक्षण ... ४६ उपचार, भक्तियोगके सहेतुक तत्त्व' और 'एव' शब्दोंका समावेशका स्पष्टीकरण ३५ रहस्योद्घाटन ... ४७
SR No.010668
Book TitleSamichin Dharmshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1955
Total Pages337
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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